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32 सालों बाद इस साल दूसरी मर्तबा पड़ रही है ईदमिलादुन्नबी

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गोरखपुर। मुस्लिम समुदाय को इस साल अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक एक ही साल में दो बार ईदमिलादुन्नबी मनाने का मौका मिल रहा है। अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की यौमे पैदाइश यानी ईदमिलादुन्नबी इस साल दूसरी बार पड़ रही है। पूरे 32 साल बाद ऐसा हो रहा है। इस साल 4 जनवरी के बाद अब ईद मिलादुन्नबी 24 दिसंबर को दोबारा मनाई जाएगी। इससे पहले 1982 में 08 जनवरी और 28 दिसंबर को ऐसा हुआ था। साल भर में दो बार ईद मिलादुन्नबी पड़ने की वजह से मुस्लिम समुदाय में भारी उल्लास है। अभी से जश्न की तैयारियां शुरू हो गई हैं। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक रबी-उल-अव्वल अल्लाह के नबी के यौमे पैदाइश मुबारक का महीना है। ये मुकद्दस महीना अंग्रेजी कैलेंडर में इस साल दो बार आया है। मस्जिदों से लेकर दरगाहों तक में तैयारी शुरू हो गई है। दुनिया में कैलेंडर दो तरह के हैं। एक सूर्य पर आधारित इसे सोलर कैलेंडर कहते हैं और दूसरा चंद्र मास पर आधारित। इसे लूनर कैलेंडर कहते हैं। ईसाईयों का कैलेंडर सोलर कैलेंडर है जिसमें महीने 30-31 दिनों के होते हैं जबकि इस्लामिक और हिंदू कैलेंडर चंद्र मास पर आधारित है। चंद्र मास में ...

पैगम्बर मुहम्मद साहब मोहसिने इंसानियत

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12 रबीउल अव्वल पर खास गोरखपुर। आपकी याद को कैसे न जिदंगी समझंू। यहीं तो एक सहारा है जिदंगी के लिए। मेरे तो आप ही सब कुछ है रहमतें आलम। मैं जी रहा हूं जमाने में आप ही के लिए।। गोेरखपुर। जब-जब दुनिया में बुराईयां बढ़ती है तब खुदा नबी व रसूल भेजता है। पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने ऐसे जमाने में जन्म लिया। जब अरब के हालात बेहद खराब थे। बच्चियों को जिंदा दफन कर दिया जाता था। विधवाओं से बुरा सुलूक होता था। छोटी-छोटी बात पर तलवारें खींच जाती, खून की नदियां बह जाती थीं। अरब कबीलों में बटा थां इंसानियत शर्मसार हो रही थी। ऐसे समय में इंसानों की रहनुमाई के लिए इस्लामिक तारीख 12 रबीउल अव्वल यानी 20 अप्रैल सन् 571 ई. में अरब के मक्का शहर में हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का जन्म हुआ। पिता का नाम हजरत अब्दुल्लाह, मां का नाम हजरत आमीना दादा हजरत अब्दुल मुत्तलिब थे। बचपन में पिता का साया उठ गया। आपके दादा ने परवरिश की। आपने हमेशा अपने किरदार, गुफ्तार से इंसान को शिक्षा दी कि सभी मानव समान है एक अल्लाह की संतान हैं। आपकी तालीमात से मक्का में रहने वालों को काफी परेशानी होने लग...

मुजद्दीदे दीन-ओ-मिल्लत आला हजरत इमाम अहमद रजा के 97वें उर्स-ए-पाक रज़वी के मौके पर

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आला हजरत की जिंदगी का हर गोसा कुरआन और सुन्नत पर अमल करने व सुन्नियत को जिंदा करने में गुजरा। मुजद्दीदे दीन-ओ-मिल्लत आला हजरत इमाम अहमद रजा से ईमाने कामिल की तारीफ पूछी गई तो आपने फरमाया रसूल को हर बात में सच्चा जानना, रसूल की हक्कानियत को सिदक दिल से मानना ईमान है। अल्लाह और रसूल के महबूबों से मोहब्बत रखें अगरचे दुश्मन हों, अल्लाह और रसूल के मुखालिफों से दुश्मनी रखे अगरचे जिगर के टुकड़े हो। जो कुछ रोके अल्लाह के लिए रोके उसका ईमान कामिल है। यह आला हजरत की तालीम है। जिसने फि़त्ना और फसाद के जमाने में मुसलमानेां को अपना ईमान बचाने में मदद की। आला हजरत सुन्नियत के सबसे बड़े अलमबरदार है। जिनकी तालीम ने 14सौ साल से चले आ रहे इस्लाम को तवानाई बख्शी। जिस जमाने में दुश्मनाने रसूल सर उठा रहे थे अपने उनका सर कूचला अपने तहरीरों तकरीरों, तशनीफों से। मुसलमानों की सच्ची रहनुमाई फरमाई। आला हजरत के इल्म के सब कायल है। हर फनप र इल्मी लियाकत का जीता जागता सबूत आपकी तशनीफे है। कुरआन का तर्जुमा कंजुल ईमान शहद से भी ज्यादा शीरीनी है। आवाम में मकबूल है। फतावा रजविया आपके इल्म का बेहतरीन नमूना है। आपने ब...

ताजदारे हरम हो निगाहे करम, हम गरीबों के दिन भी संवर जायेंगे।

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हादीए बेकसां, क्या कहेगा जहां, आपके दर से खाली अगर जायेंगे। खौफें तूफां कहीं आंधियों का है गम, सख्त मुश्किल है आका कहां जायें हम। आप भी गर न लेंगे हमारी खबर, हम मुसीबत के मारे किधर जायेंगे। दर पे साकीए कौसर के पीने चलें ,मैकशो आओ-आओ मदीने चलें। याद रखो अगर उठ गई वह नजर, जितने खाली है सब जाम भर जायेंगे। कोई अपना नहीं गम के मारे हैं हम, आपके दर पे फरियाद लाये है हम। हो निगाहे करम, वरना चैखट पे हम, आपका नाम ले-ले कर मर जायेंगे। आपके दर से कोई न खाली गया, अपने दामन को भर कर सवाली गया। हो पयामे हजीं पर भी आका करम वरना औराके हस्ती बिखर जायेंगे।

इमाम अहमद रजा खां के परपोते हजरत मौलाना सिब्तैन रजा खां का विसाल

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हुजूर अमीन-ए-शरियत हजरत मौलाना सिब्तैन रजा खां का सोमवार दोपहर उनके आवास पर इंतकाल हो गया। फाजिल-ए-बरेलवी इमाम अहमद रजा खां के परपोते हजरत मौलाना सिब्तैन रजा खां (93) काफी समय से बीमार थे। इन्होंने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तमाम मदरसे-मस्जिद कायम की। बीमारी के चलते चलना-फिरना मुश्किल हो गया। इसलिए इनके पुत्र मौलाना सलमान रजा खां और मौलाना नुमान रजा खां मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में शिक्षा के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी निभा रहे थे। देर रात तक सुपुर्दे खाक को लेकर कोई फैसला नहीं हुआ था। बड़े पुत्र मौलाना सलमान रजा खां महाराष्ट्र में थे। इसके साथ ही मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक अकीदतमंद हैं। यहां के अकीदतमंद रायपुर में सुपुर्दे खाक करने की मांग कर रहे थे। नासिर कुरैशी ने बताया दुनियाभर में अकीदतमंद हैं, जो शाम से ही बड़ी संख्या में बरेली पहुंचने लगे हैं।

हर लबों पर या हुसैन इब्ने अली की सदाएं

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फातेहाना अंदाज में निकला मियां साहब का शाही जुलूस गोरखपुर। सुबह से सड़कें पर नजर टिकी हुई थी। इंतजार हो रहा था फौज का। सफेद लिबास, खाकी वर्दी, घुड़सवार और सभी के हाथों में फौजियों वाले भाले, बंदूकें, बीच में लकदक सफेद लिबास मंे चल रहे मियां साहब जैसे ही दिखे.....शोर उठा मियां साहब आ गए। अहिस्ता-अहिस्ता कदम बढ़ा रहे मियां साहब को देखने क लिए भीड़ बेताब हो उठी। जुलूस गुजरा तो लोग पीछे-पीछे चलने लगे। एक कारवां चल पड़ा जो कि फिर इमामबाड़ा में ही पहंुच कर समाप्त हुआ। बीते तीन सौ साल की पुरानी रिवायत के मुताबिक निकल रहा इमामबाड़ा स्टेट के मियां साहब का दसवीं का शाही जुलूस पश्चिमी फाटक से सुबह पूरे शानो शौकत से निकला। जुलूस जिधर से भी निकला देखने वाले देखते रह गए। भीड़ इतनी कि गलियांे और छतों एक हो रही थीं। मियां साहब का जुलूस इमामबाड़ा कमाल शाह की मजार पर फाातिहा पढ़ने के बाद जुलूस बक्शीपुर की ओर मुड़ा। जुलूस के सबसे आगे इमामबाड़ा स्टेट का परचम उसके पीछे पैदल सवार हाथांे में भाला लिये सिपाही, घुड़सवार दस्ता, ऊंट और उनके पीछे सफेद वर्दी में अंगरक्षक चल रहे थे। मियंा साहब के निजी सुरक्...

कर्बला का वाकिया तारीख के आईने में

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मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के सहायक अध्यापक मोहम्मद आजम ने किताबों के हवाले से बताया कि हजरत इमाम हुसैन 3 जिलहिज्जा सन् 60 हिजरी को अपने अहले बैत मवाली व खुद्दाम को हमराह ले कर मक्का शरीफ से इराक की तरफ रवाना हो गए। सन् 61 हिजरी मुताबिक सन् 681 ई0का आगाज हो चुका था। मुहर्रम सन् 61 हिजरी 2 तारीख बरोज जुमेरात मुताबिक 20 अक्टूबर के दिन करबला पहुंचे। सातवीं मोहर्रम से जालिमों ने पानी बंद कर दिया। नहरे फुरात पर 500 फौजियों को लगा दिया गया तााकि इमाम हुसैन का काफिला पानी न पी सकें। 9 मुहर्रमुल-हराम सन 61 हिजरी जुमेरात शाम के वक्त इब्न-साद ने अपने साथियों को इमाम हुसैन के कााफिले पर हमला करने का हुक्म दिया। आशूरह मुहर्रम की रात खत्म हुई और दसवीं मुहर्रम सन् 61 हिजरी मुताबिक 28 अक्टूबर सन् 681 ई0 की कयामत नुमा सुबह नमूदार हुई। इमाम हुसैन के अहले बैत व जांनिसार एक-एक कर शहीद हो गए आखिर में हजरत इमाम हुसैन अपने खेमे में तशरीफ लाये। सन्दूक खोला। कुबाए मिस्री जेबे तन फरमाई। अपने नाना जाना हरजत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का अमाम ए मुबारक सर पर बांधा। सैयदुश्शुहदा हजरत अमीर हमजा रजि...

जिसने इमाम हसन व हुसैन से मुहब्बत की उसने जन्नत पा ली

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गोरखपुर इमाम हसन व इमाम हुसैन के बारे में हदीस में आया है कि हजरत अबू सईद खुदरी से रिवायत है कि पैगम्बर साहब ने फरमाया हसन और हुसैन जन्नती जवानों के सरदार है। हजरत उसामा बिन जैद फरमाते है कि एक रात में किसी काम से पैगम्बर साहब की खिदमत मंे हाजिर हुआ। तो नबी इस तरह बाहर लाये कि आप किसी चीज को उठाए हुए थे जिसे मैं न जान सका। जब मैं अर्जें हाजत से फारिग हुआ तो दर्याफ्त किया हुजूर यह क्या उठाए हुए है। आपने चादर उठाई तो मैंने देखा कि आपके दोनों पहलुओं में हजरत इमाम हसन और हुसैन है। आपने फरमाया यह दोनों मेरे बेटे और मेरे नवासे है। ऐ अल्लाह! मैं उन दोनों से मुहब्बत करता हंू तू भी उनसे मुहब्बत कर, और जो इनसे मुहब्बत करे उससे भी मुहब्बत कर। हजरत इब्ने उमर से रिवायत है कि रसूले करीम ने फरमाया हसन और हुसैन यह दोनों दुनिया मैं मेरे दो फूल है। एक और हदीस में आया है कि नबीए करीम से पूछा गया कि अहले बैत मंे आपको सबसे ज्यादा कौन प्यारा है? तो आपने फरमाया हसन और हुसैन। और हुजूर नबीए करीम ने हजरत फातिमा से फरमाते थे कि मेरे पास बच्चों को बुलाओ। फिर उन्हें सूंघते थे और अपने कलेजे से लगाते थें। एक हदीस ...

इमाम हुसैन के कुर्बानी की तारीख

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हजरत इमाम हंुसैन 3 जिलहिज्जा सन् 60 हिजरी को अपने अहले बैत मवाली व खुद्दाम को हमराह ले कर मक्का शरीफ से इराक कीतरफ रवाना हो गए। सन् 61 हिजरी मुताबिक सन् 681 ई0का आगाज हो चुका था।मोहर्रम सन् 61 हिजरी 2 तारीख बरोज जुमेरात मुताबिक 20 अक्टूबर के दिन करबला पहुंचे।सातवीं मोहर्रम से जालिमों ने पानी बंद कर दिया।नहरे फुरात पर 500 फौजियों को लगा दियागय तााकि इमाम हुसैन का काफिला पानी न पी सकें। 9 मुहर्रमुल-हराम सन्61 हिजरी जुमेरात शाम के वक्त इब्न-साद ने अपने साथियों को इमाम हुसैन के कााफिले पर हमला करने का हुक्म दिया। आशूरह मुहर्रम की रात खत्म हुई और दसवीं मुहर्रम सन् 61 हिजरी मुताबिक 28 अक्टूबर सन् 681 ई0 की कयामत नुमा सुबह नमूदार हुई। इमाम हुसैन के अहले बैत व जांनिसार एक-एक कर शहीद हो गए आखिर में हजरत इमाम हुसैन अपने खेमे में तशरीफ लाये। सन्दूक खोला। कुबाए मिस्री जेबे तन फरमाई। अपने नाना जाना पैगम्बर साहब का अमामए मुबारक सर पर बांधा। सैयदुश्शुहदा हजरत अमीर हमजा रजियल्लाहु अन्हु की ढाल पुश्त पर रखी। शेरे खुदा हजरत सैयदुना अली की तलवार जुलफिकार गले हमाइल की और हजरत जाफर तय्यारका नेजा हाथ में ल...

करबला जाने वाले अहले बैत

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हजरत इमाम हुसैन के साथ मक्का शरीफ से इराक की जानिब सफर करने वालों मंे आपके तीन पुत्र शामिल थें। हजरत अली औसत जिनको इमाम जैनुल आबिदीन कहते है। इनकी माता हजरत शहरबानों थी।उस वक्त आपकी उम्र 22 साल थी और बीमार थे। आपके दूसरे पुत्र हजरत अली अकबर थें जो याला बिन्ते अबी मुर्रह के शिकम से थे। उनकी उम्र 18 वर्ष थी। यह करबला में शहीद हुए। आपके तीसरे पुत्र हजरत अली असगर थे। उनकी माता रूबाब बिन्त इमरउल -कैस बनी कुजाआ से थी। आप शीर-ख्वार बच्चे थे। आपकी एक बहन हजरत सकीना भी करबला में हजरत इमाम आली मकाम के हमराह थीं। उस वक्त उनकी उम्र 7 साल की थी। हजरत इमाम हुसैन की दो बीवियां आपके पास थी। एक शहरबानो और दूसरी हजरत अली असगर की वालिदा रूबाब बिन्त इमरउल-कैस। हजरत इमाम हुसैन के चार नौजवान फर्जन्द हजरत कासिम (19), हजरत अब्दुल्लाह, हजरत उमर, हजरत अबुब्रक। हजरत इमाम आली मकाम के हमराह थे और करबला में शहीद हुए। हजरत अली के पांच फर्जन्द , हजरत अब्बास, उस्मान, अब्दुल्लाह, मुहम्मद इब्ने अली, हजरत जाफ़र बिन अली हजरत इमाम के हमराह थे और सब के सब करबला में शहादत पाई। हजरत अकील के फर्जन्दों में हजरत इमाम मुस्लिम त...

शाही अंदाज में निकला मियां साहब का जुलूस

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मियां साहब के जुलूस का देखने उमड़ी भीड़ मियां साहब इमामबाड़ा स्टेट गोरखपुर से पांचवी मोहर्रम का शाही जुलूस अपनी पुरानी रिवायत के मुताबिक परम्परागत तरीके से अपनी पूरी शानेां शौकत के साथ निकाला गया। सुबह से सड़कें पर नजर टिकी हुई थी। इंतजार हो रहा था फौज का। सफेद लिबास, खाकी वर्दी, घुड़सवार और सभी के हाथों में फौजियों वाले भाले, बंदूकें, बीच में लकदक सफेद लिबास मंे चल रहे मियां साहब जैसे ही दिखे.....शोर उठा मियां साहब आ गए। अहिस्ता अहिस्ता कदम बढ़ा रहे मियां साहब को देखने क लिए भीड़ बेताब हो उठी। जुलूस गुजरा तो लोग पीछे पीछे चलने लगे। एक कारवां चल पड़ा जो कि फिर इमामबाड़ा में ही पहंुच कर समाप्त हुआ। बीते तीन सौ साल से निकल रहे मियां साहब का पांचवी का जुलूस पश्चिमी फाटक से सुबह 9 बजे निकला। जुलूस कमाल शाह की मजार पर फाातिहा पढ़ने के बाद जुलूस बक्शीपुर की ओर मुडा़। जुलूस के सबसे आगे इमामबाड़ा स्टेट का परचम और उनके पीछे सफेद और आसमानी वर्दी में अंगरक्षक चल रहे थे। मियंा साहब के निजी सुरक्षा गार्ड उनके पीछे थे। कई अदद बैण्ड वादक और शहनाई वादक भी जुलूस में शमिल थें। पांचवी मोर्हरम का जु...

हर सिम्त गंूजी सदाए हुसैन

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जिस्म से लहू टपक रहा था पर किसे फिक्र थी...। जुबां पर एक ही लफ्ज या हुसैन या हुसैन या हुसैन। सदा जैसे-जैसे बुलंद हो रही थी। जंजीर और कमा छोटा चाकू उतनी ही तेजी से जिस्म पर गिर रहे थें। नौजवान तो थे ही छोटे भी बच्चे जुनूनी हो गए थें। यह मंजर था चैथी के मातमी जुलूस का। कर्बला के मैदान में 72 जानिसार साथियों के साथ हजरत इमाम हुसैन की शहादत के गम में रविवार को बसंतपुर से हाजी मो. मेंहदी एडवोकेट के आवास से अलम का मातमी जुलूस निकला। जुलूस में अंजुमन हुसैनिया के सदस्यों ने नौहाख्वानी और सीनाजनी की । यह जुलूस बसंतपुर, हैदर बाजार, हाल्सीगंज, उर्दू बाजार, घंटाघर, रेती चैक होते हुए इमामबाड़ा आगा साहेबान गीता प्रेस पहंुचा। इस मौके पर हाजी मो. मंेहदी एडवोकेट ने कहा कि आज से चैदह साल पहल हर जब्र नाइंसाफी व आतंकवाद के खिलाफ हुसैन ने यजीद के खिलाफ आवाज उठायी थी, और यजीद की लाखों फौजों के सामने अपने चंदसाथियों के साथ कर्बला के मैदान में जंग लड़ी और बलिदान देकर इंसानियत को जिंदा रखा। हर दौर में इमाम हुसैन की कुर्बानी का महत्व रहा है। और ताकयामत तक रहेगा। इस्लाम धर्म ही इंसाफ का नाम है। इमाम हुसैन की ...

आखिर सात दरवाजों में क्यूं बंद रहता है सोना - चांदी का ताजिया

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बुधवार से होगी जियारत मोहर्रम में सात दिन होती जियारत सात दरवाजों का खुलेगा ताला गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़ा एक वाहिद इमामबाड़ा है जिसके अंदर सोने और चांदी की ताजिया हैं। इसे सात दरवाजों व सात तालों में बंद रखा जाता है। इसको देखने की ललक लोगों में पूरे साल बनी रहती है। लेकिन मोहर्रम के दिनों में इमामबाड़ा की शान ही कुछ और होती है। तीन से दस मोहर्रम की दोपहर तक लोग यहां ताजिए की जियारत करने आते है। इसका एक हिस्सा पूरे साल बंद रहता है। कई दरवाजों से गुजरने के बाद मोहर्रम के दिनों में इस हिस्से तक पहुंचा जा सकता है, जहां एक बड़े कमरे में सोने चांदी के दो ताजिए रखे हुए। कुछ लोग ताजियों को बाहर लगी जाली से देखते हैं तो कुछ एक-एक करके अंदर जाते हैं। अवध के नवाब ने दिया था 5.50 किलो सोने की ताजिया। बुजुर्ग की करामत सुनकर नवाब की बेगम ने इमामबाड़े में चांदी की ताजिया स्थापित कराया जो आज भी श्रद्धालुओं के लिए आस्था का प्रतीक है। मोहर्रम का चांद दिखने के बाद इमामबाड़ा स्टेट के उत्तराधिकारी सोने चांदी ताजिया वाले कमरे में चाबी लेकर पहुंचते है। दो रकात नमाज अदा करते हैं। उसके बाद सोने-...

हिंदुस्तान की पहली इको फ्रेंडली गेंहू की ताजिया हो रही तैयार

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सैकडों सालों से हो रहा निमार्ण चैथी मोहर्रम से शुरू होता है निमार्ण नौवीं को दर्शन के लिए आम मिट्टी का प्रयोग नहीं होता इसकी ताजिया की शोहरत दूर दूर तक है मन्नतें होती है पूरी आपने मोहर्रम महीने में ताजिया जरूर देखा होगा। ताजिया इमाम (इराक) स्थित रौजे का काल्पनिक चित्रण या प्रस्तुति है। लोग अपनी आस्था और हैसियत के हिसाब से ताजिया बनाते हैं और उसे कर्बला नामक स्थान पर ले जाते है। इमाम हुसैन की तुरबत जरी इमारत रौजा की शक्ल सोने, चाॅंदी, लकड़ी, बाॅस, कपड़े, कागज वगैरह से बनाते हैं। मियां साहब इमामबाड़े में रखे सोने-चांदी, लकड़ी की ताजिया की शोहरत दूर दूर तक फैली है। अकीदतमंद के लिय मोहर्रम में दर्शन आम होता है। लेकिन शहर में एक ऐसी भी ताजिया है जो इको फ्रैंडली (पर्यावरण के काफी करीब) है। जिसको देखकर प्राकृतिक लगाव हो जाता है। जिसे हर खासों आम में गेहूं की ताजिया के नाम से जाना जाता है। जो एक बार देखता है तो देखता ही रह जाता है। कल यानी रविवार से इस ताजिया का निर्माण शुरू हो जायेगा। फाइल फोटो यकीन जानिए इस तरह की ताजिया पूरे हिंदोस्तान में कहीं नहीं बनती। जी हां हम बात कर रहे है पूर्व...

इमाम हसन व हुसैन जन्नती जवानों के सरदार: अख्तर

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गोरखपुर मस्जिद गौजी रौजा में चल रहे जिक्रे शोहदाए करबला की मजलिस में मदरसा दारूल हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती मौलान अख्तर हुसैन ने कहा कि इमाम हसन व इमाम हुसैन के बारे में हदीस में आया है कि हजरत अबू सईद खुदरी से रिवायत है कि पैगम्बर साहब ने फरमाया हसन और हुसैन जन्नती जवानों के सरदार है। हजरत उसामा बिन जैद फरमाते है कि एक रात में किसी काम से पैगम्बर साहब की खिदमत मंे हाजिर हुआ। तो नबी इस तरह बाहर लाये कि आप किसी चीज को उठाए हुए थे जिसे मैं न जान सका। जब मैं अर्जें हाजत से फारिग हुआ तो दर्याफ्त किया हुजूर यह क्या उठाए हुए है। आपने चादर उठाई तो मैंने देखा कि आपके दोनों पहलुओं में हजरत इमाम हसन और हुसैन है। आपने फरमाया यह दोनों मेरे बेटे और मेरे नवासे है। ऐ अल्लाह! मैं उन दोनों से मुहब्बत करता हंू तू भी उनसे मुहब्बत कर, और जो इनसे मुहब्बत करे उससे भी मुहब्बत कर। मस्जिद के पेश इमाम हाफीज रेयाज अहमद ने कहा कि हजरत इब्ने उमर से रिवायत है कि रसूले करीम ने फरमाया हसन और हुसैन यह दोनों दुनिया मैं मेरे दो फूल है। एक और हदीस में आया है कि नबीए करीम से पूछा गया कि अहले बैत मंे आपको सबसे ज्याद...

अबू रिहान अल-बेरूनी (973 ई. - 1048 ई.)

अल-बेरूनी का पूरा अबू रिहान मुहम्मद बिन अहम अल-बेरूनी है। उनका जन्म ईरान के नगर खवारजम के निकट एक गांव मंे हुआ। वह महान खगोल शास्त्री गुजरे हैं। उन्हें अपने जीवन में ही कीर्ति प्राप्त हुई। उस समय खवारजम पर अहमद बिन मुहम्मद बिन इराकी का शासन था। इस परिवार का संबंध राक से था इसलिए वह आल-ए-ईराक (ईराक के वंशज) कहलाते थे। अल-बेरूनी का चचेरा भाई ज्ञान और विद्या का पारखी था। इसलिए उसने अल-बेरूनी की शिक्षा और प्रशिक्षण का पूरा प्रबंध किया। यही कारण है कि अल-बेरूनी ने अपनी पुस्तकों में अपने चचेरे भाई का विवरण बड़े सम्मान के साथ किया है। जब खवारजमी का राज्य समाप्त हुआ तो अल बेरूनी पलायन करके जरजान चले आए। वहां के शासक काबूस ने आपका बड़ा सम्मान किया और अल बेरूनी कई वर्ष जरजान में रहे। यहां अल-बेरूनी ने अपनी प्रथम पुस्तक’ आसारूल वाक्रिया’ लिखी। जब खवारजम में स्थिति सामान्य हो गई तो वह वतन वापस आ गए। उस जमाने में महान वैज्ञानिक और आयुर्विज्ञान शास्त्री बू-अली सीना खवारजम आए हुए थे। दोनों महान व्यक्तियों की मुलाकात हुई और दोनों ने घण्टों विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया। उसके बाद अल-बेरूनी अफगान...

डेढ़ सेमी का दरूद शरीफ

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राज कुमार की सूक्ष्म कृतियां नायाब गोरखपुर। पिछले साल सैफई महोत्सव में गोरखपुर के एक हुनरमंद ने यूपी के सीएम अखिलेश यादव को अपनी कला से सम्मोहित कर लिया। दाल के दाने पर सीएम की तस्वीर बना डाली। सीएम वाह क्या बात कहने पर मजबूर हो गए। सीएम इस कदर खुश हुए कि पीए को आदेश दिया कि इस हुनरमंद का विजिटिंग कार्ड रख लो। गोरखपुर के लाल को पन्द्रह हजार रूपए माहवार मिलेगा। हुनर के धनी इस शख्स का नाम है राज कुमार वर्मा। बसंतपुर में इनकी रिाईशगाह है। एक अगस्त 1951 को किशुन लाल वर्मा के घर में जन्में राज कुमार की ख्याति की ख्याति पूरे देश में है। राज्य सरकार द्वारा 1992 में पुरस्कार पा चुके है। 1992 में ही अयोध्या में स्वण पदक से नवाजा जा चुका है। इसके अलावा ढे़र सारे पुरस्कार। बेंगलुरू, कर्नाटक, हरियाणा, उत्तरांचल, ताज महोत्सव आगरा, नई दिल्ली, सीमांत बिहार राज्य,, सूरजकुंड हरियाणा, मेरठ, लखनऊ सहित देश के अन्य हिस्सों मंे अपनी कला का लोहा मनवा चुके है। वर्मा के पिता पेशे से घड़ीसाज व पहलवान थे। वह चाहते थे कि उनका पुत्र भी नामी पहलवान बने। लेकिन राज कुमार तो कला के प्रेमी थे। उन्हें तो अपने हुनर की ...

दादरी में मरहूम एखलाक का कत्ल लोकतंत्र पर काला दाग

गोरखपुर। रसूलपुर स्थित पूर्व पार्षद नबीउल्लाह अंसारी के घर मोमिन अंसार काउंसिल की बैठक हुई। अध्यक्षता काउंसिल के जिलाध्यक्ष वसीम अंसारी ने व संचालन जिला उपाध्यक्ष इम्तेयाज अंसारी ने की। जिलाध्यक्ष ने कहा कि एखलाक का कत्ल भारत के लोकतंत्र पर काला दाग है। इस तरह की वारदातों से गंगा-जमुनी तहजीब खत्म हो जायेगी। उन्होंने मांग किया कि केंद्र व राज्य सरकार दंगाईयो पर कड़ी कार्यावाही करें और एखलाक के हत्यारों को तत्काल फांसी की सजा दी जायें। जिला उपाध्यक्ष ने कहा कि एखलाक के परिजनों को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पचास लाख रूपया आर्थिक मदद दी जाएं ताकि पीडि़त परिवार को न्याय मिल सके। पूर्व पार्षद नबीउल्लाह ने कहा कि उप्र सरकार के चलर कानून व्यवस्था पर सवाल उठाया और सरकार से अपील किया कि भविष्य मंे इस तरह की अमानवीय घटना दोबार ना होने पाएं। इस दौरान शमशाद अंसारी, मंसूर अंसारी, सेराज अंसारी, कामरेट जियाउद्दीन सदरे आलम असंारी, अरशद, एहतेशाम अंसारी, अजहर अली सहित तमाम लोग मौजूद रहे।

ईदुल अजहा की नमाज का तरीका

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नियत की मैंने दो रकात नमाज ईदुल अजहा वाजिब मय जायद छः तकबीरों के वास्ते अल्लाह तआला के मुहं मेरा काबा शरीफ की तरफ पीछे इस इमाम के अल्लाहु अकबर कह कर हाथ बांध ले और सना पढ़ें। दूसरी और तीसरी मरर्तबा अल्लाहु अकबर कहता हुआ हाथ कानों तक ले जायें फिर छोड़ दे। चैथी मर्तबा तकबीर कहकर हाथ कानों तक ले जायें फिर बांध लें। अब इमाम के साथ रकात पूरी करे। दूसरी रकात में कीरत के बाद तीन मर्तबा तकबीर कहता हुआ हाथ कानों तक ले जायें और हाथ छोड़ दे चैथी मर्तबा बगैर हाथ उठायें तकबीर कहता हुआ रूकूअ में जाये और नमाज पूरी कर लें, बाद नमाज इमाम खुत्बा पढ़े और जुम्ला हाजिरीन खामोशी के साथ सुने खुत्बा सुनना वाजिब है। जिन मुकतादियों तक आवाज न पहंचती हो उन्हंे भी चुप रहना वाजिब है बाद दुआ मांगे फिर बाद दुआ इजहारे मर्शरत के लिए मुसाफा व मुआनका करना बेहतर है।

तकबीरे तशरीक

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नवीं जिलहिज्जा के फज्र की नमाज से तेरहवीं के असर तक हर फर्ज नमाज के बाद जो जमात से अदा की गई तो एक मरतबा तकबीरे तश्रीक ‘‘ अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर ला इलाहा इल्लल्लाह वल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर व लिल्लाहिल हम्द’ बुलंद आवाज से कहना वाजिब है और तीन बार अफजल है।

गोरखपुर में ईदुल अज्हा की नमाज का वक्त

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कादरिया मस्जिद नखास चैक प्रातः 6.30 बजे गाजी मस्जिद गाजी रौजा, प्रातः 7.30 बजे ईदगाह सेहरा बाले का मैदान, प्रातः 9ः00 बजे ईदगाह मुबारक खां शहीद, प्रातः 8ः00 बजे ईदगाह बेनीगंज, प्रातः 9ः00 बजे ईदगाह इमामाबाड़ा स्टेट, प्रातः 8ः00 बजे ईदगाह चिलमापुर, प्रातः 7ः30 बजे ईदगाह पुलिस लाइन, प्रातः 8ः30 बजे शाही जामा मस्जिद उर्दू बाजार, प्रात 8ः30 बजे जामा मस्जिद पुराना गोरखपुर, प्रातः 8ः00 बजे जामा मस्जिद रसूलपुर, प्रातः 8ः30 बजे

गोरखपुर में लगने वाली मार्केट

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जामा मस्जिद उर्दू बाजार, शाहमारूफ, खूनीपुर, जबहखाना, रेती रोड, मदीना मस्जिद, तुर्कमानपुर, चक्सा हुसैन पाकीजा होटल खुनीपूर, अस्करगंज, जाफराबाजार, रसूलपूर, इलाहीबाग, गोरखनाथ, दीवान बाजार, गाजीरौजा ऊंचवा में जानवरों की मार्केट लगती है। इसके अलावा दूरदराज के गांवों से लोग जानवर बेचने के लिये आते है।

कुर्बानी के जानवारों की आवक

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कुर्बानी के जानवर की आवक बढ़ी है। 25 सितम्बर को ईदुल अज्हा है। व्यवसाायियों द्वारा कुर्बानी का जानवर विभिन्न जगहों पर लगने वाली मार्केट से आवक किया गया। खलीलाबाद सोमवार को बहराइच रविवार को बाराबंकी शनिवार को चैरीचैरा शानिवार को फैजाबाद गुरूवार को कालपी मंगलवार को अल्लाहपुर गुरूवार को फतेहपुर सिकरी गुरूवार को हुजूरपुर गुरूवार को सहित आसपासके जिलों से आवक हो रही है।

जानवरों में शिरकत

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भेड़, बकरी, दुम्बा सिर्फ एक आदमी की तरफ से एक जानवर होना चाहिए और भैंस, ऊंट में सात आदमी शिरकत कर सकते है।

कुर्बानी का वक्त

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जिलज्जिा की 10,11,12 तारीख कुर्बानी के लिए मख्सूस दिन है। मगर पहला दिन अफजल है। देहात में 10 जिलहिज्जा की तुलू फज्र के बाद ही से कुर्बानी हो सकती है मगर बेहतर यह है कि तुलू आफताब के बाद कुर्बानी की जाये। शहर मं नमाजें ईद से पहले कुर्बानी नहीं हो सकती। कुर्बानी दिन में करनी चाहिए। दरमियानी रातों में जिब्ह करना मकरूह है।

तकसीमे गोश्त व खाल

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कुर्बानी का गोश्त काफिर को न दिया जायंे। चर्म कुर्बानी या गोश्त वगैरह जिब्ह करने वाले को बतैार उजरत देना जायज नहीं। बेहतर यह है कि कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से कर लें। एक हिस्सा फुकरा और मशाकीन , एक हिस्सा दोस्त व अहबाब और एक अपने अहलो अयाल के लिए रख छोड़े। अगर घर के लोग ज्यादा हो तो सब गोश्त रख सकते है और सदका भी कर सकते है। और बेहतर बांटना ही है। अगर जानवर में कई लोग शरीक हो तो सारा गोश्त तौल कर तक्सीम किया जाये। अंदाज से नहीं। अगर किसी को ज्यादा गोश्त चला गया तो माफ करने से भी माफ नहीं होगा। कुर्बानी की खाल सदका कर दें या किसी दीनी मदरसें को दे।

मुस्ताहाबात

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जिसके जिम्मे कुर्बानी है उसके लिए बेहतर है कि चांदरात से बाल न बनवायें न नाखून तरशवायें, दसवीं जिलहिज्जा को नमाज से पहले कुछ न खायें, साफ सुथरे या नये कपड़े हसबे इसतात पहने खुश्बू लगाये, ईदगाह को तक्बीरे तशरीक बाआवाजें बंुलंद कहता हुआ एक रास्ते से जायें और दूसरे रास्ते से वापस आयें।

कुर्बानी करने का तरीका

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जानवर को बायें पहलू पर इस तरह लिटाये कि किब्ला को उसका मुहं हो और अपना दाहिना पांव उसके पहलू पर रख कर जल्द जिब्ह करें। अलबत्ता जिब्ह से पहले यह दुआ पढें- ‘‘ इन्नी वज्जहतु वजहिय लिल्लजी फ़तरस्समावाति वल अरज़ हनीफव व मा अना मिनल मुशारिकीन. इन्न सलाती व नुसुकी व महयाय व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन लाशरीक लहु व बिजालि क उमिरतु व अना मिनल मुस्लिम अल्लाहुम्म मिन क व ल क’’ फिर ‘‘बिस्मिल्लाहि अल्लाहु अकबर’’ पढ. कर जब्ह करे फिर यह दुआ पढे. ‘‘ अल्लाहुम्म तक़ब्बल मिन्नी कमा तक़ब्बल त मिन खलीलि क इब्राहीम अलैहिस्सलाम व हबीबि क मुहम्मदिन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम’’ अगर कुर्बानी अपनी तरफ से हो तो ‘‘मिन्नी’’ और अगर दूसरों की तरफ से हो तो ‘‘मिन्नी’’ के बजाए ‘‘मिन’’ कह कर उसका नाम लें। और अगर बड़े जानवर भैंस वगैरह की कुर्बानी कर रहे है तो फलां की जगह सब शरीकों का नाम लें अगर दूसरे से जब्ह कराएं तो खुद भी हाजिर रहे।

कुर्बानी के मुताल्लिक जरूरी मसायल

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x गोरखपुर। मौलाना मोहम्मद अजहर शम्सी ने बताया कि जो मालिके निसाब अपने नाम से एक बार कुर्बानी कर चुका है और दूसरे साल भी वह मालिके निसाब है तो फिर इस पर अपने नाम से कुर्बानी वाजिब है। (अनवारूल हदीस) बाज लोग यह ख्याल करते हैं अपनी तरफ से जिदंगी में सिर्फ एक बार कुर्बानी वािजब है यह शरअन गलत है और बेबुनियाद है इसलिए कि मालिके निसाब पर हर साल अपने नाम से कुर्बानी वाजिब है। (फतावा फैजे रसूल) देहात में दसवीं जिलहिज्जा को सुबह सादिक के बाद ही से कुर्बानी करना जायज है लेकिन मुस्तहब यह है कि सूरज तुलू होने के बाद करें। (फतावा आलमगीरी) रात में कुर्बानी करना मकरूह है। (फतावा फैजे रसूल) शहर के आदमी को कुर्बानी का जानवर देहात में भेज कर नमाज ईद से पहले कुर्बानी करा कर गोश्त को शहर में मंगवा लेना जायज है। (बहारे शरीयत) कुर्बानी का चमड़ा या गोश्त या इसमें से कोई चीज जब्ह करने वाले कसाब को मेहनताने के तौर पर देना जायज नहीं। (फतावा रजविया) शहर में नमाजे ईदुल अज्हा से पहले कुर्बानी करना जायज नहीं है। (बहारे शरीयत)

कुर्बानी का जानवर

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कुर्बानी के जानवर की उम्र महत्वपूर्ण होती है। ऊंट पांच साल, भंैस दो साल, बकरी व खशी एक साल । इससे कम उम्र होने की सूरत में कुर्बानी जायज नहीं ज्यादा हो तो अफजल है। अलबत्ता दुम्बा या भेड़ छः माह का जो इतना बड़ा हो कि देखने में साल भर का मालूम हेाता हो उसकी कुर्बानी जायज है। कुर्बानी के जानवर को एैब से खाली होना चाहिए। अगर थोड़ा से एैब हो तो कुर्बानी हो जायेगी मगर मकरूह होगी और ज्यादा हो तो कुर्बानी होगी ही नहीं। अंधे जानवर की कुर्बानी जायज नहीं इतना कमजोर जिसकी हड्डियां नजर आती हो। और लगंड़ा जो कुर्बानी गाह तक अपने पांव से जा न सकें और इतना बीमार जिसकी बीमारी जाहिर हो जिसके कान या दमू तिहायी से ज्यादा कटे हो इन सब की कुर्बानी जायज नही। ऊंट और भैंस वगैरह में सात आदमी शिकरत कर सकते हैं जबकि उन सब की नियत तकरीब की हों। कुर्बानी और अकीका की शिरकत हो सकती है। जानवर को जिब्ह करने के बाद हाथ पांव कांटने से उस वक्त तक रूके रहे जबतक कि उसके तमाम आजार से रूह निकल न जायें।

कुर्बानी मालिके निसाब पर वाजिब

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इस त्योहार में हर वह मुसलमान जो आकिल बालिग मर्द औरत जिसके पास साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोना का मालिक हो या इनमें से किसी की कीमत के सामाने तेजारत हो या तकरीबन 25 हजार रूपया हो उसके ऊपर कुर्बानी वाजिब है । कुर्बानी के लिए मुकीम होना भी जरूरी है। इसी वजह से हर मुसलमान इस दिन कुर्बानी करवाता है। जानवर जिब्ह करने के वक्त उसकी नियत होती है कि उसके अंदर की सारी बदअख्लाकी और बुराई सबकों मैने इसी कुर्बानी के साथ जिब्ह कर दिया और इसी वजह से मजहबे इस्लाम में ज्यादा से ज्यादा कुर्बानी का हुक्म किया गया है। कुर्बानी का अर्थ होता है कि जान व माल को खुदा की राह में खर्च करना। इससे अमीर, गरीब इन अय्याम में खास बराबर हो जाते है और बिरादराने इस्लाम से भी मोहब्बत का पैगाम मिलता है। कुर्बानी हमें दर्स देती है कि जिस तरह से भी हो सके अल्लाह की राह में खर्च करो। कुर्बानी से भाईचारगी बढ़ती है।

दो पैगम्बरों की कुर्बानी का अजीम पर्व ईद-उल-अजहा

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गोरखपुर। ‘‘ ऐ मुसलमां सुन ये नुक़्ता दरसे कुरआनी में है। अजमतें इस्लाम व मुस्लिम सिर्फ कुर्बानी में है।।’’ इस्लाम में कुर्बानियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। उसी में से एक ईद-उल-अजहा है। जो एक अजीम बाप की अजीम बेटे की कुर्बानी के लिए याद किया जाता है। दुनिया के तीन सबसे बड़े मजहब इस्लाम, यहूदी, ईसाई तीनों के एक पैगम्बर जिनका नाम इब्राहीम है। उनसे मंसूब एक वाक्या इस त्यौहार की बुनियाद है। मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती अख्तर हुसैन मन्नानी ने बताया कि यह वाक्या यह है कि खुदा के हुक्म से उन्होंने अपने बेटे हजरत इस्माइल जो बुढ़ापे के दौरान सालों की दुआओं के बाद पैदा हुये उनको खुदा की राह में कुर्बान करने से ताल्लुक रखता है। खुदा ने हजरत इब्राहीम को ख्वाब में अपनी सबसे अजीज चीज कुर्बान करने का हुक्म दिया। हजरत इब्राहीम ने अपने तमाम जानवरों को खुदा की राह में कुर्बान कर दिया। यह ख्वाब दो मर्तबा हुआ। तीसरी मर्तबा हजरत इब्राहीम समझ गये कि खुदा उनसे प्यारे लाडले की कुर्बानी का तालिब है। यह अल्लाह की अजमाइश का सबसे बड़ा इम्तिहान था। अल्लाह के हुक्म से उन्हें जिब्ह करने के लिये ...

कुर्बानी करने का तरीका

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जानवर को बायें पहलू पर इस तरह लिटाये कि किब्ला को उसका मुहं हो और अपना दाहिना पांव उसके पहलू पर रख कर जल्द जिब्ह करें। अलबत्ता जिब्ह से पहले यह दुआ पढें- ‘‘ इन्नी वज्जहतु वजहिय लिल्लजी फ़तरस्समावाति वल अरज़ हनीफव व मा अना मिनल मुशारिकीन. इन्न सलाती व नुसुकी व महयाय व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन लाशरीक लहु व बिजालि क उमिरतु व अना मिनल मुस्लिम अल्लाहुम्म मिन क व ल क’’ फिर ‘‘बिस्मिल्लाहि अल्लाहु अकबर’’ पढ. कर जब्ह करे फिर यह दुआ पढे. ‘‘ अल्लाहुम्म तक़ब्वल मिन्नी कमा तक़ब्बल त मिन खलीलि क इब्राहीम अलैहिस्सलाम व हबीबि क मुहम्मदिन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम’’ अगर कुर्बानी अपनी तरफ से हो तो ‘‘मिन्नी’’ और अगर दूसरों की तरफ से हो तो ‘‘मिन्नी’’ के बजाए ‘‘मिन’’ कह कर उसका नाम लें। by syed farhan --------------------

कुर्बानी का जानवर

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कुर्बानी के जानवर की उम्र महत्वपूर्ण होती है। ऊंट पांच साल, भंैस दो साल, बकरी व खशी एक साल । इससे कम उम्र होने की सूरत में कुर्बानी जायज नहीं, ज्यादा हो तो अफजल है। अलबत्ता दुम्बा या भेड़ छः माह का जो इतना बड़ा हो कि देखने में साल भर का मालूम हेाता हो उसकी कुर्बानी जायज है। कुर्बानी के जानवर को एैब से खाली होना चाहिए। अगर थोड़ा से एैब हो तो कुर्बानी हो जायेगी मगर मकरूह होगी और ज्यादा हो तो कुर्बानी होगी ही नहीं। अंधे जानवर की कुर्बानी जायज नहीं इतना कमजोर जिसकी हड्डियां नजर आती हो। और लगंड़ा जो कुर्बानी गाह तक अपने पांव से जा न सकें और इतना बीमार जिसकी बीमारी जाहिर हो जिसके कान या दूम तिहायी से ज्यादा कटे हो इन सब की कुर्बानी जायज नही। ऊंट और भैंस वगैरह में सात आदमी शिकरत कर सकते हैं जबकि उन सब की नियत तकरीब की हों। कुर्बानी और अकीका की शिरकत हो सकती है। जानवर को जिब्ह करने के बाद हाथ पांव कांटने से उस वक्त तक रूके रहे जबतक कि उसके तमाम आजार से रूह निकल न जायें। by syed farhan

अजमतें इस्लाम व मुस्लिम सिर्फ कुर्बानी में है...

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बाप-बेटे की कुर्बानी का अजीम पर्व ईद-उल-अजहा गोरखपुर। ‘‘ ऐ मुसलमां सुन ये नुक्ता दरसे कुरआनी में है। अजमतें इस्लाम व मुस्लिम सिर्फ कुर्बानी में है।।’’ मदरसा दारूल उलूम हुसैनिया दीवान बाजार के मुफ्ती मौलाना अख्तर हुसैन अजहरी मन्नानी ने बताया कि इस्लाम में कुर्बानियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। उसी में से एक ईद-उल-अजहा है। जो एक अजीम बाप की अजीम बेटे की कुर्बानी के लिए याद किया जाता है। दुनिया के तीन सबसे बड़े मजहब इस्लाम, यहूदी, ईसाई तीनों के एक पैगम्बर जिनका नाम हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम है। उनसे मंसूब एक वाक्या इस त्यौहार की बुनियाद है। यह वाक्या यह है कि खुदा के हुक्म से उन्होंने अपने बेटे हजरत ईस्माइल अलैहिस्सलाम जो 97 सालों की दुआओं के बाद पैदा हुये उनको खुदा की राह में कुर्बान करने से ताल्लुक रखता है। खुदा ने हजरत इब्राहीम को ख्वाब में अपनी सबसे अजीज चीज कुर्बान करने का हुक्म दिया। हजरत इब्राहीम ने अपने तमाम जानवरों को खुदा की राह में कुर्बान कर दिया। यह ख्वाब दो मर्तबा हुआ। तीसरी मर्तबा हजरत इब्राहीम समझ गये कि खुदा उनसे प्यारे लाडले की कुर्बानी का तालिब है। यह अल्लाह की अजमाइश क...

इस्लाम में अहम फरीजा हज

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गोरखपुर। इस्लाम में पांच फर्जों में से हज एक अहम फरीजा है। जिसको जिदंगी में एक बार अदा करना जरूरी है। इस समय दुनिया के लाखों मुसलमान सऊदी अरब के मक्का शहर में मौजूद है। भारत से हजारों मुसलमान इस यात्रा के लिये गये है। जनपद में ढ़ाई सौ से ज्यादा लोग हज के सफर पर गये। हज के दौरान सभी मुसलमानों का एक लक्ष्य खुदा की रजा हासिल करना। क्या अमीर क्या गरीब सभी एक सफ में। देश की सीमायें यहां आकर खत्म हो जाती है। सभी मुसलमान अपने गुनाहों का माफी मांगते नजर आते है। इस माह इस्लाम के दो अहम काम किये जाते है एक हज और दूसरा कुर्बानी। आइये हमको बतातें है कि हज में होता क्या है। इस्लाम में इसकी अहमियत क्यूं है ? हज इस्लाम का आखिरी फरीजा है जिसे अल्लाह ने सन् 9 हिजरी में फर्ज फरमाया। जो मालदारों पर फर्ज है और वह भी जिंदगी में सिर्फ एक बार । अल्लाह तआला का इरशाद है कि अल्लाह तआला की रजा के लिये लोगों पर हज फर्ज है जो उसकी इसतिताअत रखे। (कुरआन) हज के फर्ज होने का सबब:- अल्लाह तआला ने पहली उम्मतों में हर उम्मत को रहबाानियत और सयाहत (आबादी से दूर जंगलों , पहाड़ों पर इबादत के लिये निकल जाना) का हुक्म दिया ...

साइकिल से तय किया मुकद्दस हज का सफर

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तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जज्बे को सलाम करते हुए तत्काल बनवाया था पासपोर्ट गोरखपुर। जि़न्दगी भोर है सूरज सा निकलते रहो, एक ही पांव पर ठहरोगे तो थक जाओगे, धीरे-धीरे ही सही पर चलते रहो। इन्हीं पंक्तियों की तरह जोश जज़्बा व जुनून लिए अल्लाह के घर का तवाफ करने का (यानी हज ) पर जाने का इरादा शहर गोरखपुर के चन्द लोगांें ने उस वक्त किया जब मुल्कों का सफर बहुत कठिन था। पैसे के अभाव में लोग विदेश व हज करने कम ही जाते थे। हालांकि खुदा का घर देखने को इस हद तक मोहब्बत थी की शहर के 11 लोगांें ने हज करने का इरादा बनाया। इरादा तो बन गया कुछ एक को छोड़ बाकी के पास पासपोर्ट नहीं था। जिसकी सूचना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को मिली भारत सरकार ने इनके जज़्बे का सलाम करते हुए इनको पासपोर्ट मुहैया करायें। वाकया सन् 1953 का है जब भारत को आजाद हुए छ साल हुए थे। गोरखपुर के इस्माईलपुर मोहल्ले क ग्यारह लोगों ने सऊदी अरब की मुकद्दस हज यात्रा के लिए कमर कसी। जाने का जरिया बना साइकिल उस वक्त विदेश की यात्रा पानी की जहाज से की जाती थी लेकिन ग्यारह लोगों ने ठान ली थी कि साइकिल स...