साइकिल से तय किया मुकद्दस हज का सफर







तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जज्बे को सलाम करते हुए तत्काल बनवाया था पासपोर्ट
गोरखपुर।
जि़न्दगी भोर है सूरज सा निकलते रहो,
एक ही पांव पर ठहरोगे तो थक जाओगे,
धीरे-धीरे ही सही पर चलते रहो। इन्हीं पंक्तियों की तरह जोश जज़्बा व जुनून लिए अल्लाह के घर का तवाफ करने का (यानी हज ) पर जाने का इरादा शहर गोरखपुर के चन्द लोगांें ने उस वक्त किया जब मुल्कों का सफर बहुत कठिन था। पैसे के अभाव में लोग विदेश व हज करने कम ही जाते थे। हालांकि खुदा का घर देखने को इस हद तक मोहब्बत थी की शहर के 11 लोगांें ने हज करने का इरादा बनाया। इरादा तो बन गया कुछ एक को छोड़ बाकी के पास पासपोर्ट नहीं था। जिसकी सूचना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को मिली भारत सरकार ने इनके जज़्बे का सलाम करते हुए इनको पासपोर्ट मुहैया करायें।
वाकया सन् 1953 का है जब भारत को आजाद हुए छ साल हुए थे। गोरखपुर के इस्माईलपुर मोहल्ले क ग्यारह लोगों ने सऊदी अरब की मुकद्दस हज यात्रा के लिए कमर कसी। जाने का जरिया बना साइकिल उस वक्त विदेश की यात्रा पानी की जहाज से की जाती थी लेकिन ग्यारह लोगों ने ठान ली थी कि साइकिल से ही हज यात्रा पर जाना है। उस समय साइकिल से कई हजार किलोमीटर की लम्बी यात्रा करना नामुमकिन माना जाता था। खुदा के घर का तवाफ करने की हद और इबादत इस कदर बढ़ी कि राह में आने वाली दुश्वारियांे का ख्याल नही रहा। सेहरा का रेगिस्तान भी इनके हौसले को सलाम करता है। खुदा के घर को देखने की मोहब्बत इस कदर थी कि राह में पड़ने वाली दुश्वारियों का ख्याल ही नहीं रहा। काबिलेगौर उस वक्त इन शहरवासियों के पास पासपोर्ट भी नहीं था लेकिन इनके जज्बे को सलाम करते हुये उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इन्हें इस पवित्र यात्रा के लिए पासपोर्ट उपलब्ध करवाया। इस बात का चश्मदीद गवाह पासपोर्ट आज भी मोहल्ला खोखर टोला में महफूज है।
जिसमें तमाम मुल्कों की मुहर लगी हुई है। यह सफर पूरे नौ माह चला। इस समय तो इन लोगों में से कोई भी इस दुनिया में मौजूद नहीं है। इस ग्रुप के आखिरी सदस्य हाजी अब्दुल मोईद की मृत्यु अभी हाल में हुई है। लेकिन इस यात्रा को इनके परिवार के लोगों ने सजोये रखा। इनके परिवार के सदस्य हाजी औरंगजेब ने उस सुनहरी यादों से हमको रूबरू करवाया। जो आपके सामने पेश है। उन्होंने बताया कि सन् 1953 में ईस्माइलपुर के ग्यारह लोगों ने मुकद्दस हज यात्रा साइकिल से करने की ठानी। इस ग्रुप के मुखिया बने हाजी पतंग वाले खुदा बख्श। इसमें हमारे चचाजात दादा भी हाजी अब्दुल हफीज भी थे। मेरे वालिद की भी जबरदस्त तमन्ना थी। लेकिन साइकिल न होने की वजह से मनमसोस कर रह गये। यह गु्रप बिना पासपोर्ट के हज की यात्रा के लिए रवाना हो गया। यह दल बस्ती तक पहुंच गया था। वालिद अब्दुल मोईद के एक दोस्त जाहिद अली खान जो रेलवे में कार्यरत थे। उनसे बातचीत में यह बात भी अब्दुल मोईद ने कहीं। जाहिद ने कहा इरादा है तो साइकिल ला दें। उन्होंने नखास से इकलौती मौलवी साहब साइकिल वाले की दुकान से हम्बर साइकिल खरीद कर दी। फिर क्या था पिता ने सफर पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। 250 रुपया साथ रखा। उस समय इतने पैसे की बड़ी कीमत थी। खाने के लिए सत्तू व चना रखा। तीन लोगों अब्दुल अजीज, नेक मोहम्मद, मोहम्मद बख्श ने बस्ती तक इन्हें दस लोगों के ग्रुप तक पहुंचाया। इस समय इन्होंने एक होल्डन में तमाम जरूरत का सामान रखा। साइकिल मरम्मत का सामान भी रखा। फिर निकल पड़े हज की मुकद्दस यात्रा पर। दिल्ली के रास्ते राजस्थान बार्डर पर इन्हें पासपोर्ट के अभाव में रोक दिया गया। इसकी सूचना एम्बेसी ने भारत सरकार को दी। उस समय भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक पहुंची। उन्होंने इन लोगों के जज्बे को सलाम करते हुये तत्काल पासपोर्ट बनाने का आदेश देकर मुहैय्या कराया। फिर सफर शुरू हुआ। राह में तमाम दिक्कतें भी पेश आयी। पाकिस्तान तक लोगों की बोलियां समझ में आती थी इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं आयी। जब लोगों को पता चलता था कि यह दस्ता साइकिल से हज यात्रा को जा रहा है तो खूब खिदमत करते थे। तोहफे देते थे। हाजी औरंगजेब ने बताया कि इस दौरान तमाम तरह के वाकयात पेश आये। रेगिस्तानी इलाकों से जब गुजर होता तो गर्म हवाओं से बचने के लिए रेत में साइकिल समेत मुहं ढक कर अपनी जान बचाते थे। जब हवाओं की रफ्तार थम जाती तो रेत को झाड़ते हुये निकलत,ए फिर यात्रा शुरू करते है। पाकिस्तान के अलावा अन्य मुल्कों ईराक, ईरान, सऊदी अरब में अरबी व फारसी बोली जाती थी। जिससे वहां की बोली समझने में दुश्वारी होती थी। लेकिन लोग समझ जाते थे कि यह हज पर जा रहे है तो खूब सेवा सत्कार करते थे। रूकते रूकाते यह यात्रा नौ माह में पूरी हुई। एक वाक्या काबिलेगौर है जब ईराक के बगदाद में बडे़ पीर साहब की मजार पर वालिद गये तोवहां पर इनके पासपोर्ट व पैसे वाली थैली गुम हो गयी। काफी ढ़ूंढने पर भी नहीं मिली तो इनके अन्य साथियों ने अपनी यात्रा जारी रखी। बिना
पासपोर्ट आगे जाना संभव नहीं था। इसलिए यह यहीं मजार पर रूक गये। यहीं पर रोते-रोते शाम हो गयी। आंख झपकी तो एक बुजुर्ग तशरीफ लायें। परेशानी की वजह पूछी तो आपने अपनी परेशानियां बयां कर दी। उन्होेंने खाने के लिए कुछ दिया फिर वह चले गये तो वालिद
मोहतरम ने मजार से बाहर आ कर देखा तो पासपोर्ट व पैसे की थैली वहीं पर मौजूद थी। हलांकि इस जगह पर कई बार नजर गयी थी। खैर उन्होंने खुश होकर सफर जारी रखा। फिर जल्द गु्रप से मुलाकात भी हो गई। सऊदी अरब में तशरीफ लाने पर वालिद की तबियत खराब हो गयी। लेकिन उसके बावजूद आपने हज की रस्म को अंजाम दिया। उन्होंने बताया कि वालिद मोहतरम बताते थे कि हर जगह पर चार पांच घंटे ठहराव होता था। खाना पकाया जाता, नमाज वगैरह पढ़ी जाती थी। खट्टी मीठी यादों को लेकर हज यात्रा हुई। जिसकी यादें आज भी इन दस्ते के लोगों के घरों के हर फरद के सीने पर दफन है। आज भी यह दास्तां कोई सुन ले तो उसका ईमान ताजा हो जाता हैं।

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