मोहम्मद हसन की कयादत ,छह माह आजाद गोरखपुर
गोरखपुर। भारत की पहली जंगे आजादी में हर कौम के जानिसारों ने बढ़कर हिस्सा लिया। उन्हीं में एक नाम है मोहम्मद हसन । इतिहासकारों ने इन्हें अपने अवराकों में जगह दी। पुस्तक द इण्डियन वार आफ इंडिपेन्डेंट में लेखक वीडी सरकार ने मोहम्मद हसन के कार्यों की प्रशंसा करते हुए लिखा कि वह अपनेे समय के सबसे प्रतिष्ठित देशभक्त थे।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि पहली जंगे आजदी कीे बगावत मई 1857 के आखिरी हफ्तें में साफ नजर आने लगे थे। 10 मई 1857 ई. तक बैरक पुर छावनी में उठी विस्फोटक क्रांति दु्रत गतिसे पूरे देश में फैलने लगी। जिसका असर गोरखपुर में भी हुआ। 31 मई 1857 को पूर्व योजनानुसार तत्कालीन गोरखपुर के पैनाग्राम के क्रांतिकारियों ने सम्राट बहादुर शाह जफर के झण्डे तले ईस्ट इण्डिया कम्पनी के घृणित अधिपत्य को नकारते हुए नवाब के साथ होने का एलान कर दिया। उसी दिन क्रांतिकारियों ने गोरखपुर-पटना और गोरखपुर-आजमगढ़ का नदी द्वारा यातायात अवरूद्ध कर दिया। घाटों पर लदी नावों को एवं गोरखपुर से आजमगढ़ जाने वाले खजाने को लूट लिया गया। 6 जून 1857 नरहरपुर के राजा हरिसिंह ने इस अभियान में सम्मिलित होने की घोषणा कर दी। उसी दिन सरफराज अली के उकसाने पर कुछ विद्रोहियों ने चंद अंग्रेजों को गोरखपुर में मारा डाला गया। पैना के राजपूत ठाकुर सिंह, शिवव्रत सिंह, पल्टन ंिसंह, शिवजोर सिंह ने अपने राजपूत एवं मुस्लिम लड़ाकों के साथ बड़हलगंज कस्बे पर आक्रमण कर दिया।
गोरखपुर का इतिहास आदि से आज तक के लेखक अब्दुर्रहमान गेहुंआसागरी ने लिखा है कि 5 जून को गोरखपुर के पश्चिमी हिस्से में भी बगावत की आग भड़क उठी। छह जून को नहरपुर के राजा के नेतृत्व में उनके मानने वालों ने बड़हलगंज थाना एवं घाट से पुलिस को खदेड़कर उस पर कब्जा कर लिया। इसके अलावा 50 कैदियों की जो थाने पर मौजूद थे, आजाद करा लिया गया। पैना के जमीदारों के विद्रोह की खबर सनुकर नहरपुर, सतासी, पाण्डेयपुर के बाबुओं के नेता गोविंद सिंह एवं अन्य प्रमुख जमींदारों की खुफिया बैठक हुई। जिसमें अवध के हुक्म को तरजीह देने का फैसला लिया गया। इस फैसलें से बेगम हजरत महल को इत्तेला दी गयी।
10 जून 1857 को मगहर परगने में महुआ डाबर ग्राम की जनता ने उन छह भगोड़े अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला, जो फैजाबाद से भागकर नाव द्वारा गोरखपुर जनपद में प्रवेश करना चाहते थे। इसी समय जंगे आजादी की पहली लड़ाई की गोरखपुर में कयादात (नेतृत्व) मोहम्मद हसन जैसी महान क्रांतिकारी के हाथों में आयी। इस दौरान छह माह तक गोरखपुर अंगे्रजों के पंजे से आजाद रहा। अवध की बेगम हजरत महल ने मोहम्मद हसन को गोरखपुर का नाजिम नियुक्त किया। इससे पूर्व वह गोण्डा और बहराईच के नाजिम की जिम्मेदारी उठा चुके थें। लेकिन वहां से हटने के बाद उन्होंने गोरखपुर पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजी शासन को गोरखपुर से उखाड़ फेंका। उसी शक्ति के कारण अधिकांश क्षत्रीय राजाओं ने उसी अधीनता स्वीकार कर ली। मोहम्मद हसन ने गोरखपुर नगर में कुछ माह शासन किया लेकिन जनवरी 1858 आते-आते गोरखपुर नगर पर अंग्रेजों का दबाव बढ़ने लगा। मोहम्मद हसन का जितने भी दिन शासन रहा। वह लाजवाब रहा।
प्रो. अहमर लारी मुख्तसर तारीख गोरखपुर में मोहम्मद हसन के शासन व्यवस्था की प्रशंसा करते है। लेकिन यह शासन व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं टिक सकी।
अंग्रेजों ने गोरखा एवं सिख सैनिकों पर चढ़ाई कर दी। गोरखा सैनिकों को नेतृत्व राणा जंग बहादुर कर रहा था। 26 दिसम्बर 1857 को जंग बहादुर कमिश्नर सैमुअल के साथ आगे बढ़ा। क्रांतिकारी मोर्चें में ग्राम सोहनापुर के कुंवर सिंह के चचेरे भाई हरिकृष्ण सिंह, पैना के ठाकुर सिंह राजा सतासी डुमरी बाबू बन्धू सिंह, गहमर के मेधर सिंह ने मोहम्मद हसन के नेतृत्व में ग्राम सोहनापुर के आस-पास मोर्चा बंद की। नायब नाजिम मोशर्रफ खां और पटना के मौलवी अब्दुल करीम अपने क्रांतिकारियों सहयोगियों का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेजों के साथ सिख और गोरखा सैनिकों का उन्हें पता नहीं था। युद्ध दस बजे से डेढ़ बजे तक चला। क्रांतिकारी जंग हार गये। एक सौ बीस स्वदेश प्रेमी वीर गति का प्राप्त हुए। नायब नाजिम सतासी मोशर्रफ खां भी पूरब की ओर चले गये। नायब नाजिम मोहम्मद हसन अज्ञात स्थान में छुप गए। अंग्रेजों का जनवरी 1858 में पुनः गोरखपुर पर अधिकार हो गया। नयाब नाजिम सतासी मोशर्रफ खंा पकड़े गए उन्हें उर्दू में फांसी पर लटका दिया गया। सरदार अली खां भी पकड़े गए, उनकी हवेली ध्वस्त कर दी गई और उनको वर्तमान कोतवाली के हाते में फांसी पर लटका दिया गया। हाते में ही उनकी कब्र बना दी गयी। सताशी नरेश राजा उदित नारायण सिंह को काला पानी की सजा हुई। एक खास बात चंूकि अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भारत में मुसलमानों का शासन था। इसलिए अंग्रेज शासकों से उनका विद्वेष स्वाभाविक थ। मुसलमानों के प्रति उनके रूख को पता लार्ड एडिनवार के कथन से लगता है। सरदार अली खां के नेतृत्व मंे नाजिम मोहम्मद हसन का साथ देने वाले अधिकांश मुसलमान मुहल्ला शाहपुर, बशारतपुर, मुगलहा और चरगांवा के थे। सभी मध्यम वर्गीय कामगार परन्तु देशप्रेम से ओत प्रोत थे। कुछ गोली का शिकार हुये। अधिंकाश बचे हुये सपरिवार पकड़ कर फीजी भेज दिए गए। शाहपुर व बशारतपुर में ईसाईयों को बसा दिया गया। इस तरह 16 जनवरी 1858 तक अंग्रेजों का गोरखपुर पर पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद मोहम्मद हसन फैजाबाद की ओर चले गये। उसका उद्देश्य राजा बेनी माधव और नाना साहब के साथ मिलकर संघर्ष को जीवित रखना था मगर निरन्तर उन पर आत्मसमर्पण के लिए दबाव पड़ता रहा। सुरक्षा एवं सम्मान का निश्चित आश्वासन पा जाने के बाद उन्होंने 31 मार्च 1859 को सायंकाल 4 बजे बुटवल के पास अंग्रेजों खेमे में आत्मसमर्पण कर दिया।
गोरखपुर पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने गोरखपुर कमिश्नरी में परिवर्तित कर दिया और उसकी देखभाल के लिए चाल्र्स विंग फील्ड को नियुक्त किया गया। कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने उप्र स्वतत्रता संग्राम की एक झांकी में लिखा है कि अंग्रेजी शासन ने सर्वप्रथम क्रांतिकारियों को चुन-चुन कर मारना शुरू किया। पेड़ों पर फांसी के तख्तें लटक रहे थे, उन्हें हर प्रकार से यातना दी गयी। कईयों को राज्य से अलग कर दिया गया। डुमरी के बाबू बंधु सिंह की फांसी ऐतिहासिक नजरियें से महत्वपूर्ण है । सतासी और बढ़यापार के राज्य जब्त कर लिए गये और इनके शासकों को अंडमान द्वीप पर निर्वासित कर दिया गया। निचलौल के राजा रंडुल सेन की पेंशन बंद कर दी गई। वर्तमान घंटाघर स्थित पतजू के पेड़ पर तमाम लोगों को फांसियां दी गई। इसके अलावा अलीनगर स्थित पीपल के पेड़ पर लोगों को फांसी पर चढ़ाया गया। फांसी पाने वालों में फैज बख्श, फजल अली, अली हसन, बंधु सिंह, मोशर्रफ खां वगैरह नाम उल्लेखनीय है। खूनीपुर में गंजे शहीदां की मजार एवं शहर के मुख्तलिफ हिस्सों में 1857 की कं्राति में शहीद हुए वीरों के मजारात मौजूद है। कुछ नाम इतिहास को मिले लेकिन वे तमाम नाम इतिहास को ढूढें नहीं मिले जो देश की आन पर मर मिटे। इसीलिए तो मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर कहने को मजबूर हुये
न दबाया जेरे जमीं उन्हें
न दिया किसी ने कफन उन्हें
न हुआ नसीब वतन उन्हें
न कहीं निशाने मजार है।
अस्सालामुअलेकुम जनाब आपकी इस पोस्ट से बहुँत जानकारी हुई द इडियन वार आफ इनडिपैन्डेट के लेखक हिन्दू राष्ट्रवादी इतिहासकार वीoङीo सावरकर है न कि वी०डी० सरकार आप इस किताब को नेट पर सर्च कर सकते है मीर मोहम्मद हसन साहब मेरे दादा के दादा थे जो की मोहल्ला काज़ी सहसवान जिला बदायूँ के रहने वाले थे इनके बारे में मेने भी कई पोस्ट डाली है मेरा मोबाइल न० 9410696138 है अल्लाह हाफिज़
जवाब देंहटाएंअस्सालमुअलेकम आपके इस आर्टिकल से बहुंत जानकारी हुई आपको मुबारक बाद द इंडियन बार आफ इनडिपेन्डस पुस्तक के लेखक बी० ड़ी० सावरकर साहब है न कि बी० डी सरकार मीर मुहम्मद हसन साहब मेरे दादा के दादा थे जो कि दीवान खाना काजी मुहल्ला सहसवान जिला बदायूं उ०प्र० के निवासी थे मेरा नाम मीर मुशरर्फ अली है मे सहसवान मे ही रहता हुं मेरा mo no 7906187620 हैं
जवाब देंहटाएं