देशप्रेमी हाजी खादिम हुसैन की खिदमात

देशप्रेमी हाजी खादिम हुसैन की खिदमात जंगे आजादी के लिए कुर्बान कर दिए 12 गांव व नौकरी गोरखपुर। 1857 की पहली जंगे आजादी हो या इसके बाद की लड़ाई हिन्दुस्तान के बाशिंदों ने सब्र का दामन नहीं छोड़ा। जिदंगी, दौलत समेत तमाम कुर्बानियां दी। जिसका नतीजा है कि आज हम खुली अंग्रेजों की गुलामी से आजाद है। बहुत से ऐसे थे जिन्हें खूब शोहरत मिली। कुछ ऐसे थे जिनकी खिदमात कोई नहीं जानता। ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा है। एक ऐसी शख्सियत हैं तिवारीपुर (औलिया चक) के रहने वाले हाजी खादिम हुसैन सिद्दीकी। जो आलिमें दीन भी थे और सच्चे देशभक्त भी। इनके पूर्वज शेख सनाउल्लाह लंग पहलवान (दादा औलिया) रहमतुल्लाह अलैह मुगल शहंशाह औरंगजेब के शासन काल में गोरखपुर आये। शहंशाह औरंगजेब ने एक सनद लिख कर इनके पूर्वजों को दी थी। जिसके तहत इन्हें चैदह गांव मिला था। इसके अलावा अन्य सम्पत्तियां भी मिली। जब महात्मा गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन चलाया तो आप भी उसमें शामिल हुये। आपने सरकारी नौकरी छोड़ दी। उस समय के अंग्रेज प्रशासन ने उन्हंे चेतावनी दी की। अगर आपने इस आंदोलन में हिस्सा लिया तो आपका सारा गांव जब्त कर लिया जायेगा। आपने अंग्रेजों की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया। असहयोग आंदोलन को सफल बनाने में जुट गये। जब महात्मा गांधी का गोरखपुर आने का कार्यक्रम बालेे के मैदान में बना तो इसकी सफलता की सारी जिम्मेदारियां आपके कंधों पर आ गयी। अंग्रेजों ने आपके 12 गंाव जब्त कर लिए। फिर भी आप मौलाना आजाद सुभानी के साथ जंगे आजादी में लगे रहे। अपने निवास स्थान तिवारीपुर में ’’दायरे रब्बानी’’, और ’’जामए रब्बानी’’ का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया। आप और मौलाना आजाद स्वयं रब्बानी आंदोलन के जनक भी रहे। यहीं से मौलाना की प्रथम पत्रिका ’’रूहानियत’’ का प्रकाशन भी हुआ। दूसरी पत्रिका दावत का प्रकाशन किया। तीसरी पत्रिका रब्बानियत का प्रकाशन भी यहीं से हुआ। मजलिस रब्बानियत की पन्द्रह रोजा पत्रिका ’’दावत’’ का प्रकाशन हाजी खादिम हुसैन ’’दावत प्रेस’’ से करते रहे। खादिम हुसैन के 78 वर्षीय पुत्र हाजी मोहम्मद आशिक हुसैन सिद्दीकी ने बताया कि आप तिवारीपुर (औलिया चक) में 1889 ई. में पैदा हुए। आपके बचपन में ही वालिद वालिदा का सायंा सिर से उठ गया। घर पर रह कर ही दीनी तालिम हासिल की। आप शुरू से ही जहीन थे। आपने मिशन स्कूल (सेंट एंड्रयूज इंटर कालेज) से हाईस्कूल किया। इस बीच ऐसे हालात बने कि पट्टीदारों से विवाद स्वरूप मुकदमा हो गया। आपने इस दौरान वर्तमान एमजी इंटर कालेज में अध्यापन शुरू किया। चूंकि आप तमाम भाषाओं पर पकड़ रखते थे। वहां पर कक्षा सात के विद्यार्थियों को अंग्रेजी व अरबी पढ़ाते थे। जब 1920 महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो आपका इस पर काफी असर पड़ा। इसी समय खिलाफत आंदोलन भी चल रहा था। आप भी इन दोनों आंदोलनों में शामिल हो गए। सबसे पहले आपने नौकरी छोड़ दी। उसके बाद असहयोग आंदोलन को सफल बनाने में जुट गए। प्रो. ईश्वरशरण विश्वकर्मा ने लिखा है कि कांग्रेस की स्थापना के बाद महात्मा गांधी के नेतृत्व मंे जो अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन प्रारम्भ हुआ। उसमें गोरखपुर की जनता ने उत्साहपूर्वक भाग लिया था। 8 फरवरी 1921 को जनपद के बाले मियां के मैदान में महात्मा गांधी का भाषण हुआ तो गोरखपुर की जनता ने उत्साह से भाग लिया। पुनः 4 फरवरी 1922 को चैरी-चैरा काण्ड की घटना के बाद गांधी जी ने आंदोल स्थगित कर दिया। किन्तु पुनः आंदोलन तीव्र हुआ और अनेक क्रांतिकारियों की शहादत तथा गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलनों से सत्य की जीत हुई और देश स्वतंत्र हुआ। मोहम्मद आशिक हुसैन ने बताया कि जब गांधी जी का गोरखपुर में कार्यक्रम बना तो इसकी जिम्मेदारी आपके जिम्मे आयी। आप दिन रात मीटिंग करते रहते। जनसम्पर्क करते। अंग्रेजों को यह बात पता चली तो उन्होंने धमकी देनी शुरू कर दी। लेकिन देशप्रेमी खादिम हुसैन भला अंग्रेजों की धमकियों से कब डरने वाले थे। उन्होंने आपका कार्यक्रम जारी रखा। आखिर अंग्रेजों की फौज की मौजूदगी में बाले मियां के मैदान में सम्मेलन हुआ। अपार जनसमूह शामिल हुआ। अंग्रेज जलभून गये उन्होंने आपके 12 गांव जब्त कर लिए। आप ने हार नहीं मानी मौलाना आजाद सुभानी के साथ जंगें आजादी के लिए लगे रहे। आपकी विद्वतों का यह आलम था कि न्यायिक खण्डपीठ के आप सदस्य थे। इस खण्डपीठ मंे ग्याहर लोगों में आप भी शामिल थे। मुकदमें में आपके फैसले का कद्र की निगाह से देखा जाता था। इसी के साथ ही आप बड़े आलिम-ए-दीन भी थे। आपने मौलाना आजाद सुभानी के साथ मिलकर हयातुन्नबी जैसी जखीम किताब लिखी। इसके अलावा रिसाला मेराज शरीफ, शहादत-ए-कुब्रा, मशहूर बुजुर्गानेंदीन की हालात पर किताब, हाकीकतें नमा, रहमतुल्लिल आलमीन, एजाजें कुरआनी, हकीकत बैअत आदि लिखी। कुछ छप चुकी है। आपके हाथों की लिखी तमामें किताबें अभी छपी नहीं हैं। लेकिन आपके पुत्र आशिक हुसैन व उनके लड़के मोहम्मद अशरफ, मोहम्मद अनवार, मोहम्मद अफजल, व मोहम्मद अतहर सारी किताबों व चीजों को सहेजने में जुटे है। खादिम हुसैन नात के बहुत शौकीन थे। उनके द्वारा लिखी किताब गुलिस्ताने नात छप चुकी है। उनके इस क्षेत्र को दायरे रब्बानी नाम मौलाना आजाद सुभानी रखा। खादिम हुसैन ने मस्जिद की तामीर करवायी। 13 अगस्त 1977 को आप इस फानी दुनिया से कंूच कर गये। आपको मस्जिद के आहातें में दफन किया गया। आपने मौलाना आजाद को हरंसभव मदद की। मौलाना आजाद से आपका सगे भाई की तरह सम्बंध था। मौलाना का ननिहाल निजामपुर में मौजूद है। उसके बावजूद वह यहीं ठहरते थे। खादिम हुसैन से अलग ही रिश्ता था। हाजी खादिम हुसैन ने उनको रहने के लिए मकान इनायत करवाया। जिसमें वह काफी समय तक रहे। उसके बाद मौलाना के पुत्र मौलाना हसन सुभानी वहां रहते रहे। मदरसा भी चलाया। वहीं पास में खादिम हुसैन द्वारा बनवायी गयी मस्जिद में मौलाना आजाद के द्वारा लिखा खुत्बा हर जुमा को पढा जाता था। हाजी खादिम हुसैन सिद्दकी की मजार पर कौम के अलावा कोई भी इनकी मजार पर अकीदत के फूल भी नहीं चढ़ाने आता। उनकी कब्र पर शेर लिखा है- है नाम ही गवाह कि हूं खादिम हुसैन। पैदाइशी है मुझको शहे करबला से इश्क।। इस जिदंगी में फैज से खाली ने रख मुझे। बरसें मेरी लहद (कब्र) पर अब्रे बहारे फैज।। शहंशाह की दी सनद आज भी मौजूद हैं गोरखपुर। मुगल शहंशाह औरंगजेब की जब हुक्मरानी चली तो आपके दौरे हुक्मत मंे जनपद के डोमिनगढ़ के राजा डोमसिंह ने आवाम पर तरह-तरह के जुल्म करने शुरू किए। इसकी खबर शहंशाह को हुई तो आपने शेख सनाउल्लाह रहमतुल्लाह अलैह को शाही फौज की टुकड़ी का सिपहसालार बना कर भेजा। आप एक टुकड़ी को लेकर आये और वर्तमान तिवारीपुर (औलिया चक ) में ठहरें। आपको शहंशाह ने फरमान दिया था कि राजा को जिंदा गिरफ्तार कर भेजा जायें। हाजी मोहम्मद आशिक हुसैन सिद्दीकी ने बताया कि जंग हुई। राजा को जिंदा गिरफ्तार करना था। आपने कमंद (रस्सी का फंदा) डालकर पकड़ना चाहा, लेकिन चूक गये राजा ने पलटकर वार कर दिया आपका पैर शहीद हो गया। आपने हार नहीं मानी और राजा को गिरफ्तार कर शहंशाह के पास भेज दिया। शहंशाह के नाम एक खत लिखा कि आपकी सेवा के लायक में नहीं रह गया हूं आप मुझे यहीं तिवारीपुर (औलियाचक) में रहने की इजाजत दें दे। शहंशाह ने कुबूल कर लिया। और सनद जारी कि आपको कई गांव इनायत किया। इस सनद पर शहंशाह के आफिस की मुहर के साथ शहंशाह की अगंूठी की भी मुहर लगी हुई है। जो गोरखपुर विश्वविद्यालय में मौजूद है। जिसके बारे में खादिम हुसैन ने अपने हस्तलिखित नोट में भी लिखा है। इसके अलावा जिस हुजरे मंें शेख सनाउल्लाह रहमतुल्लाह अलैह रहते थे वह हुजरा भी मौजूद है साथ ही उस जमाने की बड़ी कुरआन शरीफ भी मौजूद है। इसके अलावा अन्य चीजें भी है। तिवारीपुर कभी औलिया चक था गोरखपुर। जनपद में मौजूद तिवारीपुर कभी औलिया चक के नाम से मशहूर था। आज भी कागजों में यहीं दर्ज है। शेख सनाउल्लाह उर्फ दादा औलिया रहमतुल्लाह अलैह की वजह से इस क्षेत्र का नाम औलिया चक था। काफी समय तक यहीं नाम चला। बाद मंे लोगों ने इसे तब्दील कर दिया गया। इस वंश के खादिम हुसैन को बाग लगाने का काफी शौक था। उन्होंने काफी बड़ा बाग लगाया। जहां पर लोगों की मीटिंग हुआ करती थी।

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