एक वली की ईद

हजरते शेख नजीबुद्दीन मुतवक्किल हजरत बाबा फरीद के भाई और खलीफा है उनका लकब मुतवक्किल है। ये सत्तर बरस शहर में रहे मगर कोई जाहिरी जरीआ ए माश न होने के बावजूद इनके इयालो अतफाल निहायत इत्तिनान से जिदंगी बसर करते रहे और ये अपने मौला की याद में इस कदर मुस्तगरिक रहते थे कि ये भी नहीं जानते थे कि आज कौनसा दिन है? और ये कौनसा महीना है? एक दफा ईद के दिन आप के घर में बहुत से मेहमान जमा हो गये। इत्तिफाक से उस रोज आप के घर में खाने के लिए कुछ नहीं था। आप बाला खाने पर जाकर यादे इलाही में मशगूल हो गये। और अपने दिल में ये कहते थे कि या अल्लाह! आज ईद का दिन है और मेरे बच्चे और मेहमान भूके है। इस तरह दिल ही दिल में ये कह रहे थे कि अचानक कहीं से एक शख्स छत पर आ गया और उसने खानों से भरा हुआ एक ख्वानपेश किया। और कहा कि ऐ नजीबुद्दीन! तुम्हारे तवक्कुल की धूम मलाओ अअ़ला में मची हुई हैं। और तुम्हारा ये हाल है कि तुम ऐसे यानी खाना तलब करने के लिए ख्याल में मश्गूल हो? आप ने फरमाय कि हक तआला ख्ूाब जानता है कि मैं ने अपनी जात के लिए यह ख्याल नहीं किया, बल्कि अपने मेहमानों के लिए इस ख्याल की तरफ मुतवज्जेह हो गया था।

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