इस्लाम का अहम फरीजा जकात

इस्लाम का अहम फरीजा जकात गोरखपुर। जकात फर्ज है। उसी फरजीयत का इंकार करने वाला काफिर और अदा न करने वाला फासिक और अदायगी में देर करने वाला गुनाहगार मरदुदुश्शहादत है। (गवाही न देने के बराबर) जकात फर्ज होने की चंद शर्तें है। मुसलमान आकिल बालिग होना, माल बकदरे निसाब का पूरे तौर पर मिलकियत में होना, निसाब का हाजते अस्लीया और किसी के बकाया से फारिग होना, माले तिजारत या सोना चांदी होना और माल पर पूरा साल गुजर जाना। सोना चांदी के निसाब (मात्रा) में सोना का निसाब साढ़े सात तोला है जिसमें चालीसवां हिस्सा यानी सवा दो माशा जकात फर्ज है। चांदी का निसाब साढ़े बावन तोला है जिस में एक तोला तीना माशा छः रत्ती जकात फर्ज है। सोना चांदी के बजाय बाजार भाव से उनकी कीमत लगा कर रूपया वगैरह देना भी जायज है। सोना चांदी के जेवरात पर भी जकात वाजिब होती है। तिजारती (बिजनेस) माल की कीमत लगाई जाए फिर उससे सोना चांदी का निसाब पूरा हो तो उसके हिसाब से जकात निकाली जाए। अगर सोना चांदी न हो और न माले तिजारत हो तो कम से कम इतने रूपये हों कि बाजार में साढ़े बावन तोला चंादी या साढ़े सात तोला सोना खरीदा जा सके तो उन रूपर्यों की जकात वाजिब होती है। जिदंगी बसर करने के लिए जिस चीज की जरूरत होती है जैसे जाडे़ और गर्मियों में पहनने के कपड़े, खानादरी के सामान, पेशावरों के औजार और सवारी के लिए साईकिल और मोटर वगैरह यह सब हाजते अस्लीया में से है इनमें जकात वाजिब नहीं है। निसाब का दैन से फारिग होने का मतलब यह है कि मालिके निसाब पर किसी का बाकी न हो या इतना हो कि अगर बाकी अदा कर दे तो भी निसाब बचा रहे तो इस सूरत में जकात वाजिब है और अगर बाकी इतना हो कि अदा कर दे तो निसाब न रहे तो इस सूरत में जकात वाजिब नहीं। माल का पूरा साल गुजर जाने का मतलब यह है कि हाजते अस्लीया से जिस तारीख को पूरा निसाब बच गया उस तारीख से निसाब का साल शुरू हो गया फिर साले आइन्दा उसी तारिख को पूरा निसाब पाया गया तो जकात देना वाजिब है। अगर दरमियाने साल में निसाब की कमी हो गयी तो यह कमी कुछ असर न करेगी। जकात फकीर यानी वह शख्स कि जिसके पास कुछ माल है लेकिन निसाब भर नहीं है। मिसकीन यानी वह शख्स कि जिसके पास खाने के लिए गल्ला और बदन छिपाने के लिए कपड़ा भी न हो। कर्जदार यानी वह शख्स कि जिसके जिम्मा कर्ज हो और उसके पास कर्ज से फाजिल कोई माल बकदरे निसाब न हो। मुसाफिर जिसके पास सफर की हालत में माल न रहा उसे जरूरत भर को जकात देना जाइज है। जिन लोगों को जकात देना जाइज नहीं उनमें से कुछ यह हैं मालदार यानी वह शख्स जो मालिकी निसाब हो, बनी हाशि यानी हजरते अली, हजरते जाफर, हजरते अकील और हजरते अब्बास व हारिस बिन अब्दुल मुत्तलिब की औलाद को देना जाइज नहीं। अपनी नस्ल और फरा यानी मां, बाप दादा, दादी नाना, नानी वगैरह और बेटा, बेटी, पेाता, पोती नवासा, नवासी को जकात देना जाइज नहीं, औरत अपने शौहर को और शौहर अपनी औरत को अगरचे तलाक दे दी हो जब तक की इद्दत में हो जकात नहीं दे सकता, मालदार मर्द के नाबालिग बच्चे को जकात नहीं दे सकता और मालदारकी बालिग औलाद को जबकि मालिके सिाब न हो दे सकता है। वहाबी या किसी दूसरे मुरतद बद मजहब और काफिर को जकात देना जाइज नहीं है। सैयद को जकात देना जाइज नहीं इसलिए कि वह भी बी हाशिम मंें से है। जकात का माल मस्जिद में लगाना, मदरसा तामीर करना या उससे मैयित को कफन देना या कुआं बनवाना जाइज नहीं यानी अगर इन चीजों में जकात का माल खर्च करेगा तो जकात अदा न होगी (बहारे शरीयत) जकात और सदकात में अफजल यह है कि पहले अपने भाई बहनों को दे फिर उनकी औलाद को फिर चचा और फूफियों को फिर उनकी औलाद को फिर मामू और खाला को फिर उनकी औलाद को फिर दूसरे रिश्तेदारों को फिर पड़ोसियों को फिर अपने पेशा वालों को फिर अपने शहर या गांव के रहने वालों को दे। और ऐसे तालिबे इल्म को भी जकात देना अफजल है जो इल्मेदीन हासिल कर रहा हो बशर्तें कि यह लोग मालिके निसाब न हों।

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