जामा मस्जिद उर्दू बाजार 1120 हिजरी में बनीं गोरखपुर
मुगल सल्तनत की अजीम यादगार
शाही जामा मस्जिद उर्दू बाजार सन् 1698 ई. में मुगल बादशाह बहादुर शाह प्रथम मुअज्जम शाह ने कराया निमार्ण
मुगल वास्तुकला की शानदार मिसाल
मस्जिद 320 साल की हुई
syed farhan ahmad
ऐतिहासिक मस्जिद के मेहराबों व मिम्बर लाजवाब
गोरखपुर। मुगलिया सल्तनत की अजीमुश्शान निशानी ऐतिहासिक जामा मस्जिद उर्दू बाजार। 320 सालों से पूर्वांचल के इतिहास में चार चांद लगा रही है। मुगल वास्तुकला की अनमोल धरोहर के रुप में इसका शुमार है। मुगल बादशाह मुअज्जम शाह का अजीम शाहकार है जामा मस्जिद उर्दू बाजार। मस्जिद आज भी अपने आन बान शान से मुगल सल्तनत के वकार को बयां कर रही। इसकी दरों दीवार में मुगलिया सल्तनत की वास्तुकला अद्भुत रुप से रची बसी नजर आती है। जब आप यहां तशरीफ लायेंगे तो इसकी भव्यता व खुबसूरती देख कर आप का दिल बागबाग हो जायेगा। गुजरे जमाने का नायाब हुनर अपको दिल जीत लेगा। यहां इबादत कर लेंगे तो रूह का ताजगी का अहसास होगा। दूर दराज से लोग यहां पर खास इबादत के लिए भी तशरीफ लाते है। इबादतगाहें खुदा का घर होती है। सारी इबादतगाहें अजीम है। लेकिन इसका खास मकाम है। यकीन जानिए यहां पर आपको इतना सुकून मिलेगा। जिसको बयां करने से जुंबा कासिद है। इस ऐतिहासिक मस्जिद के मेम्बर , मेहराब, सेहन, गुम्बद आलीशान है। इसका निमार्ण औरंगजेब के दूसरे पुत्र शाहजदा मुअज्जम शाह ने 1120 हिजरी में मुताबिक सन् 1698 ई. (1120 हिजरी) में इसका कराया था। हालांकि यह तामीर मुअज्जम शाह ने बादशाह बनने से पहले शुरू करायी। तामीर बादशाहत के जमाने में पूर्ण हुई। बादशाह मुअज्जम शाह के नाम पर ही गोरखपुर का नाम मुअज्जमाबाद पड़ा। जो पूरे सौ साल तक चला। औरंगजेब के दूसरे शाहजादे आजम शाह के नाम पर आजमगढ़ बना। गोरखपुर का असल शहर पुराना गोरखपुर था। उर्दू बाजार का भी निमार्ण बादशाह मुअज्जम शाह ने करवाया। यहां पर मुगलिया सेना रहती थी। सेना की सहूलियत के लिए उर्दू बाजार का निमार्ण कराया गया। यह फौज का बाजार था। उर्दू तुर्की शब्द है जिसका अर्थ होता है फौज या सेना का बाजार। एक तरह से यह जगह मुगलिया फौज की छावनी थी। इसी के लिए उर्दू बाजार बना । यहां पर तमाम तरह के सामान मिल जात थे। पहले दरिया-ए- राप्ती इसी क्षेत्र से होकर बहती थी। फौजियों व शहर में रहने वाले मुसलमानों के लिए मस्जिद का निमार्ण कराने का निर्णय लिया गया। नमाज वगैरह की सहूलियत के लिए ऐतिहासिक जामा मस्जिद उर्दू बाजार के निमार्ण का आदेश बहादुर शाह प्रथम उर्फ मुअज्जम शाह ने दिया। इसका निमार्ण फौज के चकलेदार या सूबेदार खलीलुर्रहमान के जेरे नजर शुरू हुआ। इन्हीं खलीलुर्रहमान के नाम पर खलीलाबाद शहर तामीर हुआ। वहां पर उन्होंने जामा मस्जिद, किला, नौ किलोमीटर लम्बी सुरंग व अयोध्या तक सड़का का निर्माण करवाया। बहरहाल दरिया-ए-राप्ती मस्जिद से सट कर बहती थी। इसलिए इसकी नींव को लम्बे क्षेत्रफल में बनाया गया। नींव बेहद मजबूत ताकि दरिया इसे नुकसान न पहुंचा सके। मस्जिद के निमार्ण से पहले सात कुंओं का निमार्ण कराया गया। जो रेती, लालइमली, धम्माल, जामा मस्जिद के करीब एवं अन्य कुएं मस्जिद के अंदर बनाये गये। ताकि पानी की जरूरत पूरी की जा सके। उस जमाने में यह कुएं ही पानी का स्रोत थे। अब इन कुओं का वजूद खत्म हो गया है। कई सौ मजदूर लगाये गये। मिट्टी व सूर्खी चूने व उस जमाने की ईटों से इसका निमार्ण कराया गया। कई सालों में मस्जिद का निमार्ण सम्पन्न हुआ। इस मस्जिद की चैड़ाई उत्तर दक्षिण 90 फीट, पूरब पश्चिम करीब 80 फीट है। मस्जिद के बगल से दरिया-ए-राप्ती जब बहती थी तो इसकी खुबसूरती व भव्यता देखते बनती थी। दरिया में मस्जिद का अक्स बेहद दिलकश रहता था। उस दौर का नजारा बेहद लाजवाब था। रेती पर केवल रेत ही रेत नजर आती थी। धीरे-धीरे दरिया का दायरा सिमटता गया। आबादी बसने लगी। अब यहां पर बड़ी आबादी हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद मस्जिद अपनी भव्यता व रौनक अपने अंदर उसी जलवे के साथ बरकरार रखे हुये है जो कई सौ साल पहले वजूद में थी। मस्जिद के तीन गुबंद अपनी भव्यता की जीती जागती निशानी है। वहीं मीनार व दरों दीवार पर मुगलिया नक्काशी दिलकश है। मस्जिद का दरवाजा भी अपनी शान को बयां करता है। मस्जिद की दो मीनारें थी। 1934 के जलजले में एक मीनार शहीद हो गयी। दूसरी मीनार भी कमजोर हो गयी थी। इसलिए मीनारों को छोटा कर दिया। मस्जिद के तीन दरवाजे है पूरब, उत्तर, दक्षिण की ओर से। मस्जिद के अंदरुनी हिस्से में एक वक्त में छह सौ लोगों के नमाज पढ़ने की जगह है। एक सफ में करीब 80 आदमी खड़े हो सकते है। बाहर के हिस्से में भी कई सौ लोग नमाज अदा कर सकते है। जुमा, अलविदा, ईद, ईदुलअज्हा में यहां पर करीब पांच हजार से छह हजार लोग नमाज अदा करते है। हर चीज की एक उम्र होती है। यह ऐतिहासिक मस्जिद जर्जर होने लगी तो 20-25 साल पहले आगरा के अर्कियोलाजिस्ट वकार ने मुआयना करने के बाद इसके पुननिमार्ण कराने की सलाह दी। उन्होंने हिदायत दी की मस्जिद की दरों दीवार कमजारे हो चुकी है। इसमें एक कील भी न ठोकी जायें। तीनों मेहराब कमजोर हो चुकी है। मस्जिद की दीवारों में दरार पड़ने लगी। कमेटी ने उस समय ढाई से तीन लाख रूपया खर्च कर इस धरोहर का बचाने की कोशिश की। कुछ साल पहले कमेटी व आवाम के सहयोग से इस ऐतिहासिक मस्जिद की मरम्मत की गई। अब यह मस्जिद 100-150 साल तक के लिये सुरक्षित हो गयी है। इस मस्जिद के जेरे नजर सात और मस्जिदें है। जिसमें संगी मस्जिद, सौदागार मोहल्ला, हांसूपुर, अखाड़े वाली मस्जिद, हाल्सीगंज की मस्जिद, महराजगंज जिले की जामा मस्जिद, मस्जिद मुसाफिर खाना शामिल है। इस वक्त मस्जिद के किरायेदार की सूची लम्बी है जिसमें विविध दुकानदार भी शामिल है। जामा मस्जिद कमेटी मस्जिद की देखभाल करती है। दस लोगों की कमेटी है। मस्जिद में एक इमाम, एक नायाब इमाम , एक मोअज्जिन है। इमाम मस्जिद मौलाना अब्दुल जलील मजाहरी करीब 28 सालों से इमामत का काम अंजाम दे रहे है। इसी तरह नायाब इमाम मुफ्ती अब्दुल्लाह संभाल रहे है वही मोअज्जिन का काम मुस्तारूल हसन अंजाम देते है। मुगल वास्तुकला की अजीम निशानी अपनी पूरी शानो शौकत के साथ बरकारर है। जामा मस्जिद मुगल काल का अद्भूत नमूना: अब्दुल्लाह गोरखपुर। जामा मस्जिद कमेटी के जनरल सेके्रटरी मोहम्मद अब्दुल्लाह ने बताया था कि मस्जिद करीब 300 साल से ज्यादा की जो चुकी है। इस मुअज्जम अली शाह ने बनवाया था। जिसकी तामीर खलीलुर्रहमान के जेरे नजर हुई। मस्जिद विस्तृत भू भाग पर है। इसमें एक समय में कई सौ नमाजी नमाज पढ़ सकते है। ईद, ईदुलअज्हा, अलविदा में भीड़ हजारों में पहुंच जाती है। करीब पन्द्रह से सत्तरह सफें बनती है। एक सफ में करीब 80 आदमी खड़े हो सकते है। हर इमारत की एक उम्र होती है। इस मस्जिद का निमार्ण चूने व गारे से हुआ। *एक नजर -- बादशाह मुअज्जम शाह गोरखपुर। बहादुर शाह प्रथम मुअज्जम शाह का जन्म 14 अक्टूबर सन् 1643 ई. में बुरहानपुर भारत में हुआ । बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवें मुगल बादशाह थे। शहजादा मुअज्जम कहलाने वाले बादशाह औरंगजेब के दूसरे पुत्र थे। पूरा नाम साहिब -ए-कुरआन मुअज्जम शाह आलमगीर सानी अबु नासिर सैयद कुतुबुद्दीन अबुल मुहम्मद मुअज्जम शाह आलम बहादुर शाह प्रथम पादशाह गाजी (खुल्द मंजिल) था। इनका राज्यभिषेक 19 जून 1707 को दिल्ली में हुआ। शासन काल 22 मार्च 1707 से 27 फरवरी 1712 ई. तक रहा। इनके शासन काल में मुगल सीमा उत्तर और मध्य भारत तक फैली थी। शासन अवधि 5 वर्ष रही। 68 साल की उम्र में इनका इंतेकाल हुआ। उत्तराधिकारी बहाुदर शाह जफर हुये। इनके आठ पुत्र ओर एक पुत्री थे। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहजादा मुअज्जम ही औरंगजेग के संभावी उत्तराधिकारी थे। बहादुर शाह प्रथम को शाहआलम प्रथम या आलमशाह प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। बादशाह बहादुर शाह प्रथम के चार पुत्र थे जहांदारशाह, अजीमुश्शान, रफीउश्शान और जहानशाह। इन्होंने गोरखपुर में बसंतपुर सराय का निर्माण कराया। जामा मस्जिद उर्दू बाजार इन्होंने निमार्ण करायी हिजरी 1120 में। इस साल इन्होंने सिल्वर का सिक्का भी चालू कराया। इसके अलावा इन्होंने दिल्ली की मोती मस्जिद भी बनवाय

शाही जामा मस्जिद उर्दू बाजार सन् 1698 ई. में मुगल बादशाह बहादुर शाह प्रथम मुअज्जम शाह ने कराया निमार्ण
मुगल वास्तुकला की शानदार मिसाल
मस्जिद 320 साल की हुई
syed farhan ahmad
ऐतिहासिक मस्जिद के मेहराबों व मिम्बर लाजवाब
गोरखपुर। मुगलिया सल्तनत की अजीमुश्शान निशानी ऐतिहासिक जामा मस्जिद उर्दू बाजार। 320 सालों से पूर्वांचल के इतिहास में चार चांद लगा रही है। मुगल वास्तुकला की अनमोल धरोहर के रुप में इसका शुमार है। मुगल बादशाह मुअज्जम शाह का अजीम शाहकार है जामा मस्जिद उर्दू बाजार। मस्जिद आज भी अपने आन बान शान से मुगल सल्तनत के वकार को बयां कर रही। इसकी दरों दीवार में मुगलिया सल्तनत की वास्तुकला अद्भुत रुप से रची बसी नजर आती है। जब आप यहां तशरीफ लायेंगे तो इसकी भव्यता व खुबसूरती देख कर आप का दिल बागबाग हो जायेगा। गुजरे जमाने का नायाब हुनर अपको दिल जीत लेगा। यहां इबादत कर लेंगे तो रूह का ताजगी का अहसास होगा। दूर दराज से लोग यहां पर खास इबादत के लिए भी तशरीफ लाते है। इबादतगाहें खुदा का घर होती है। सारी इबादतगाहें अजीम है। लेकिन इसका खास मकाम है। यकीन जानिए यहां पर आपको इतना सुकून मिलेगा। जिसको बयां करने से जुंबा कासिद है। इस ऐतिहासिक मस्जिद के मेम्बर , मेहराब, सेहन, गुम्बद आलीशान है। इसका निमार्ण औरंगजेब के दूसरे पुत्र शाहजदा मुअज्जम शाह ने 1120 हिजरी में मुताबिक सन् 1698 ई. (1120 हिजरी) में इसका कराया था। हालांकि यह तामीर मुअज्जम शाह ने बादशाह बनने से पहले शुरू करायी। तामीर बादशाहत के जमाने में पूर्ण हुई। बादशाह मुअज्जम शाह के नाम पर ही गोरखपुर का नाम मुअज्जमाबाद पड़ा। जो पूरे सौ साल तक चला। औरंगजेब के दूसरे शाहजादे आजम शाह के नाम पर आजमगढ़ बना। गोरखपुर का असल शहर पुराना गोरखपुर था। उर्दू बाजार का भी निमार्ण बादशाह मुअज्जम शाह ने करवाया। यहां पर मुगलिया सेना रहती थी। सेना की सहूलियत के लिए उर्दू बाजार का निमार्ण कराया गया। यह फौज का बाजार था। उर्दू तुर्की शब्द है जिसका अर्थ होता है फौज या सेना का बाजार। एक तरह से यह जगह मुगलिया फौज की छावनी थी। इसी के लिए उर्दू बाजार बना । यहां पर तमाम तरह के सामान मिल जात थे। पहले दरिया-ए- राप्ती इसी क्षेत्र से होकर बहती थी। फौजियों व शहर में रहने वाले मुसलमानों के लिए मस्जिद का निमार्ण कराने का निर्णय लिया गया। नमाज वगैरह की सहूलियत के लिए ऐतिहासिक जामा मस्जिद उर्दू बाजार के निमार्ण का आदेश बहादुर शाह प्रथम उर्फ मुअज्जम शाह ने दिया। इसका निमार्ण फौज के चकलेदार या सूबेदार खलीलुर्रहमान के जेरे नजर शुरू हुआ। इन्हीं खलीलुर्रहमान के नाम पर खलीलाबाद शहर तामीर हुआ। वहां पर उन्होंने जामा मस्जिद, किला, नौ किलोमीटर लम्बी सुरंग व अयोध्या तक सड़का का निर्माण करवाया। बहरहाल दरिया-ए-राप्ती मस्जिद से सट कर बहती थी। इसलिए इसकी नींव को लम्बे क्षेत्रफल में बनाया गया। नींव बेहद मजबूत ताकि दरिया इसे नुकसान न पहुंचा सके। मस्जिद के निमार्ण से पहले सात कुंओं का निमार्ण कराया गया। जो रेती, लालइमली, धम्माल, जामा मस्जिद के करीब एवं अन्य कुएं मस्जिद के अंदर बनाये गये। ताकि पानी की जरूरत पूरी की जा सके। उस जमाने में यह कुएं ही पानी का स्रोत थे। अब इन कुओं का वजूद खत्म हो गया है। कई सौ मजदूर लगाये गये। मिट्टी व सूर्खी चूने व उस जमाने की ईटों से इसका निमार्ण कराया गया। कई सालों में मस्जिद का निमार्ण सम्पन्न हुआ। इस मस्जिद की चैड़ाई उत्तर दक्षिण 90 फीट, पूरब पश्चिम करीब 80 फीट है। मस्जिद के बगल से दरिया-ए-राप्ती जब बहती थी तो इसकी खुबसूरती व भव्यता देखते बनती थी। दरिया में मस्जिद का अक्स बेहद दिलकश रहता था। उस दौर का नजारा बेहद लाजवाब था। रेती पर केवल रेत ही रेत नजर आती थी। धीरे-धीरे दरिया का दायरा सिमटता गया। आबादी बसने लगी। अब यहां पर बड़ी आबादी हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद मस्जिद अपनी भव्यता व रौनक अपने अंदर उसी जलवे के साथ बरकरार रखे हुये है जो कई सौ साल पहले वजूद में थी। मस्जिद के तीन गुबंद अपनी भव्यता की जीती जागती निशानी है। वहीं मीनार व दरों दीवार पर मुगलिया नक्काशी दिलकश है। मस्जिद का दरवाजा भी अपनी शान को बयां करता है। मस्जिद की दो मीनारें थी। 1934 के जलजले में एक मीनार शहीद हो गयी। दूसरी मीनार भी कमजोर हो गयी थी। इसलिए मीनारों को छोटा कर दिया। मस्जिद के तीन दरवाजे है पूरब, उत्तर, दक्षिण की ओर से। मस्जिद के अंदरुनी हिस्से में एक वक्त में छह सौ लोगों के नमाज पढ़ने की जगह है। एक सफ में करीब 80 आदमी खड़े हो सकते है। बाहर के हिस्से में भी कई सौ लोग नमाज अदा कर सकते है। जुमा, अलविदा, ईद, ईदुलअज्हा में यहां पर करीब पांच हजार से छह हजार लोग नमाज अदा करते है। हर चीज की एक उम्र होती है। यह ऐतिहासिक मस्जिद जर्जर होने लगी तो 20-25 साल पहले आगरा के अर्कियोलाजिस्ट वकार ने मुआयना करने के बाद इसके पुननिमार्ण कराने की सलाह दी। उन्होंने हिदायत दी की मस्जिद की दरों दीवार कमजारे हो चुकी है। इसमें एक कील भी न ठोकी जायें। तीनों मेहराब कमजोर हो चुकी है। मस्जिद की दीवारों में दरार पड़ने लगी। कमेटी ने उस समय ढाई से तीन लाख रूपया खर्च कर इस धरोहर का बचाने की कोशिश की। कुछ साल पहले कमेटी व आवाम के सहयोग से इस ऐतिहासिक मस्जिद की मरम्मत की गई। अब यह मस्जिद 100-150 साल तक के लिये सुरक्षित हो गयी है। इस मस्जिद के जेरे नजर सात और मस्जिदें है। जिसमें संगी मस्जिद, सौदागार मोहल्ला, हांसूपुर, अखाड़े वाली मस्जिद, हाल्सीगंज की मस्जिद, महराजगंज जिले की जामा मस्जिद, मस्जिद मुसाफिर खाना शामिल है। इस वक्त मस्जिद के किरायेदार की सूची लम्बी है जिसमें विविध दुकानदार भी शामिल है। जामा मस्जिद कमेटी मस्जिद की देखभाल करती है। दस लोगों की कमेटी है। मस्जिद में एक इमाम, एक नायाब इमाम , एक मोअज्जिन है। इमाम मस्जिद मौलाना अब्दुल जलील मजाहरी करीब 28 सालों से इमामत का काम अंजाम दे रहे है। इसी तरह नायाब इमाम मुफ्ती अब्दुल्लाह संभाल रहे है वही मोअज्जिन का काम मुस्तारूल हसन अंजाम देते है। मुगल वास्तुकला की अजीम निशानी अपनी पूरी शानो शौकत के साथ बरकारर है। जामा मस्जिद मुगल काल का अद्भूत नमूना: अब्दुल्लाह गोरखपुर। जामा मस्जिद कमेटी के जनरल सेके्रटरी मोहम्मद अब्दुल्लाह ने बताया था कि मस्जिद करीब 300 साल से ज्यादा की जो चुकी है। इस मुअज्जम अली शाह ने बनवाया था। जिसकी तामीर खलीलुर्रहमान के जेरे नजर हुई। मस्जिद विस्तृत भू भाग पर है। इसमें एक समय में कई सौ नमाजी नमाज पढ़ सकते है। ईद, ईदुलअज्हा, अलविदा में भीड़ हजारों में पहुंच जाती है। करीब पन्द्रह से सत्तरह सफें बनती है। एक सफ में करीब 80 आदमी खड़े हो सकते है। हर इमारत की एक उम्र होती है। इस मस्जिद का निमार्ण चूने व गारे से हुआ। *एक नजर -- बादशाह मुअज्जम शाह गोरखपुर। बहादुर शाह प्रथम मुअज्जम शाह का जन्म 14 अक्टूबर सन् 1643 ई. में बुरहानपुर भारत में हुआ । बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवें मुगल बादशाह थे। शहजादा मुअज्जम कहलाने वाले बादशाह औरंगजेब के दूसरे पुत्र थे। पूरा नाम साहिब -ए-कुरआन मुअज्जम शाह आलमगीर सानी अबु नासिर सैयद कुतुबुद्दीन अबुल मुहम्मद मुअज्जम शाह आलम बहादुर शाह प्रथम पादशाह गाजी (खुल्द मंजिल) था। इनका राज्यभिषेक 19 जून 1707 को दिल्ली में हुआ। शासन काल 22 मार्च 1707 से 27 फरवरी 1712 ई. तक रहा। इनके शासन काल में मुगल सीमा उत्तर और मध्य भारत तक फैली थी। शासन अवधि 5 वर्ष रही। 68 साल की उम्र में इनका इंतेकाल हुआ। उत्तराधिकारी बहाुदर शाह जफर हुये। इनके आठ पुत्र ओर एक पुत्री थे। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहजादा मुअज्जम ही औरंगजेग के संभावी उत्तराधिकारी थे। बहादुर शाह प्रथम को शाहआलम प्रथम या आलमशाह प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। बादशाह बहादुर शाह प्रथम के चार पुत्र थे जहांदारशाह, अजीमुश्शान, रफीउश्शान और जहानशाह। इन्होंने गोरखपुर में बसंतपुर सराय का निर्माण कराया। जामा मस्जिद उर्दू बाजार इन्होंने निमार्ण करायी हिजरी 1120 में। इस साल इन्होंने सिल्वर का सिक्का भी चालू कराया। इसके अलावा इन्होंने दिल्ली की मोती मस्जिद भी बनवाय
माशा अल्लाह बहुत ही मालुमाती बयान है हमारे शहर गोरखपुर के बारे मे....इतनी सारी जानकारी मिली और सबसे बड़ी जानकारी के राप्ती मस्जिद के बिलकुल बग़ल से होके गुज़रती थी...रेती और बाकी़ जगह के वजूद का पता चला और हमारे शहर का पुराना नाम भी बहुत अच्छा और माकूल था....मोअज़्ज़माबाद..बहुत बहुत शुक्रिया तमाम जानकारियों का... ����
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