जानिए कौन है हजरत रौशन अली शाह, अवध का नवाब भक्त कैसे बना, तीन सौ साल से कैसे जल रही है धूनी

जानिए कौन है हजरत रौशन अली शाह, अवध का नवाब भक्त कैसे बना, तीन सौ साल से कैसे जल रही है धूनी

गोरखपुर। मियां साहब इमामबाड़ा की ख्याति सूफीसंत सैयद रौशन अली शाह की वजह से दूर-दूर तक है। वह हमेशा खुदा की इबादत में लगे रहते थे। उन्हें अहले बैत से मोहब्बत थी। इमाम हुसैन रजिअल्लाहु तआला अन्हु व उनके साथियों की फातिहा के लिए इमामबाड़ा स्थापित किया। तारीख के आईने में एक वाकिया बहुत मशहूर है ।

मामला यूं है कि अवध के पहले नवाब बुर्हानुल मुल्क शहादत खां को 1719 ई.में दूसरे नवाब सफदरजंग को 1737 ई. में इसके बाद तीसरे नवाब के रूप में शुजाउद्दौला को 1753 ई. में नवाबी मिली। 1764 ई. में अवध के नवाब एवं अंग्रेजों में बक्सर का युद्ध हुआ, जिसमें अवध का नवाब शुजाउद्दौला पराजित हुआ। 1775 में शुजाउद्दौला की मृत्यु हुई। चैथे नवाब आसफ-उद्दौला को 1775 ई. में अवध की नवाबी मिली। नवाब आसफ-उद्दौला शिकार के बेहद शौकीन थे। रिवायत के मुताबिक 1784 ई में सर्दी के मौसम में अवध के नवाब शिकार खेलने गोरखपुर आये। उस वक्त अवध की राजधानी फैजाबाद हुआ करती थी। हाथी पर शिकार करते हुए वह गोरखपुर के घने जंगलों में आ गये। इसी घने जंगल में धूनी (आग) जलाये एक बुजुर्ग बैठे थे। जिनका नाम सैयद रौैशन अली शाह था। धूनी जलाये हाथों में  चिमटा लिये अल्लाह की इबादत  में लीन। शिकार के दरम्यान उन्होंने देखा एक बुजुर्ग कड़कड़ाती ठंडक में बिना वस़्त्र पहने धूनी जलाये बैठा है चूंकि नवाब दयालु थे उन्होंने अपनी कीमती दोशाला (शाल) उन पर डाल दी, लेकिन बाबा ने उस धूनी में शाल को जला कर राख कर दिया। यह देख कर नवाब नाराज हुए उन्होंने रौशन अली शाह से कहा कि आपको इस ठंडक में शाल की जरूरत थी जो मैने आप को दिया पर आप ने उसे धूनी में जला दिया। यह सुन रौशन अली शाह ने धूनी की राख में चिमटा डाल कर कई कीमती दौशाला (शाल) निकाल कर दिया। यह देख नवाब समझ गये कि यह कोई मामूली शख्स नहीं बल्कि अल्लाह का वली है। नवाब आसफ-उद्दौला ने तुरंत हाथी से उतर कर मांफी मांगी उनकी बुजुर्गी के कायल हो गये और बुजुर्ग रोशन अली शाह से उनके लिए कुछ करने की इजाजत चाही, सूफी रोशन अली शाह ने नवाब से इमामबाड़े की विस्तृत तामीर के लिए कहा जिसे नवाब ने माना और इमामबाड़ा तामीर करवाया। 12 साल तक तामीरी काम चलता रहा ,सन् 1796 ई. में मुकम्मल तौर इमामबाड़ा तैयार हो गया। उन्हीं के जमाने से मोहर्रम मनाने का यह सिलसिला चला आ रहा है। जो आज भी जारी है।

सतासी के राजा पहलवान सिंह ने मौजा कुसुम्ही और उससे सटे जंगल को सन् 1793 ई. में इमाम हुसैन के फाातिहा नियाज के लिए दान किया। अवध के शासक आसफ-उद्दौला ने सन् 1796 ई. में करीब 15 गांव ,दस हजार रूपये नगद सैयद रौशन अली शाह को दिया।
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तीन सौ सालों से जल रही धूनी
गोरखपुर। हजरत रौशन अली शाह ने इमामबाड़े में एक जगह धूनी जलायी थी। वहीं पर बैठ कर खुदा की इबादत करते थे। वहीं धूनी मियां साहब के इमामबाड़े में आज भी सैकड़ों वर्षाें से जलती चली आ रही है। जिस धूनी की राख को श्रद्धालू लगा कर हर तरह की परेशानियों से मुक्ति पाते है।

मान्यता है कि इसी जगह पर रौशन अली शाह की मुलाकात अवध के नवाब आसफ-उद्दौला से हुई थी। यहीं दोशाला (साल ) वाला वाकिया गुजरा। रिवायत के अनुसार जब यह वाकिया मशहूर हुआ तो रूद्रपुर (सतासी) की रानी भवनराजकुंवरि देवी पालकी से उस बुजुर्ग रौशन अली के पास पहुंची और उन्होंने उस धूनी को निरंतर जलाये रखने के लिए 11 सौ एकड़ जंगल दान में दिया । राजा पहलवान सिंह ने सात इलाके रौशन अली शाह के नाम वक्फ किये।
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धरोहर के रूप में मौजूद है सूफी संत रौशन अली का सामान

गोरखपुर। धरोहर के रूप में हजरत सैयद रौशन अली शाह का हुक्का, चिमटा, खड़ाऊ तथा बर्तन आज भी मौजूद है जिनको देखने के लिए दूर दराज से लोग आते है। बाबा के द्वारा बनवायी लकड़ी की ताजिया भी लोगों के दर्शन के लिए आम है। इसी कमरे में हजरत रौशन अली शाह की लकड़ी का खड़ाऊ, नमाज पढ़ने की जगह, प्याला, वुजू का लोेटा और उनकी छड़ी की जियारत आप आसानी से कर सकते है। यहीं मिम्बर स्टेज भी रखा है। जहां पर शहादतें कर्बला की मजलिस होती थी। यहीं पर मर्सिया खाना है जहां पर उलेमा किराम मोहर्रम की पहली तारीख यानी चांद रात में बाद नमाज ऐशा से दसवीं मोहर्रम की शब तक इमाम हुसैन की अजीम कुर्बानी के बारे में बतातें है। अकीदतमंतदों का तांता लगा रहता है। लोग जियारत कर शीरीनी लेते है।
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रौशन अली शाह की करामत लकड़ी बढ़ गयी
गोरखपुर। रिवायत के मुताबिक लोगों का कहना है कि जब इमामबाड़े की तामीर हो रही थी ओर छत पर लकड़िया लगायी जा रही थी उनमें से एक लकड़ी छोटी हो जाया करती थी । जिस को लेकर कारीगर बाबा रौशन अली शाह के पास ले गये और लकड़ी को हाथ में लेकर कहा कि क्यों परेशान कर रही हों। परेशान मत करो। इतना कह कर उन्हें लकड़ी दे दी। जब लकड़ी लगायी गयी वह लकड़ी खुद-ब-खुद बढ़ गयी जिसे बाद में काटा गया जो आज भी हर खासो आम के जियारत के लिए मोहर्रम में दिखाई जाती है। जो एक कमरे में महफूज है।

वाकिया मशहूर है कि देवीपुर स्टेट की रानी देवी सिंह की संतान नहीं थी। इसकी चिंता रानी को हमेशा सताती थी। उसी समय रौशन अली शाह की ख्याति चरम पर थी। रानी देवी सिंह भी उनके पास पहुंची और संतान के लिए दुआ करने का अनुरोध किया। संतान हुई तो मन्नत के अनुसार उन्होंने काफी सम्पत्ति वक्फ की।
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रौशन अली शाह करते थे शेर की सवारी

गोरखपुर। किदवतीं मशहूर है कि बुजुर्ग रौशन अली शाह जब इबादत में मशगूल होते थे तो उनके बगल में शेर बैठा रहता था। जब कुछ दिनों के बाद उन्हें जरूरत महसूस होती थी तो वह उसी शेर पर सवारी कर 12 किमी दूर मौजा

(  प्रस्तुति : - सैयद फरहान अहमद)

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