`जानिए कैसे आबाद हुआ जाफ़रा बाज़ार`
*_8 सफर (14 अगस्त 2024) उर्स-ए-मुबारक पर स्पेशल_*
`गोरखपुर की विलायत मिली हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह अलैहिर्रहमा को`
`मुगल शहंशाह शाहज़हां (1627-1658 ई.) के जमाने में कायम हुई शहर की दूसरी सबसे पुरानी मस्जिद व रौजा`
`14 अगस्त 2024 को है हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह का 318वां उर्स-ए-पाक`
`जानिए कैसे आबाद हुआ जाफ़रा बाज़ार`
गोरखपुर। जाफ़रा बाज़ार में आबाद 'सब्जपोश' खानदान बहुत पुराना है। गोरखपुर के सबसे प्रतिष्ठित मुस्लिम घराने में इसका शुमार है। 14 अगस्त 2024 को इस खानदान के और गोरखपुर के बड़े वली हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह का 318वां उर्स-ए-पाक है। इस मौके पर पेश है खानदान-ए-सब्जपोश की दास्तान।
सैयद शाहिद अली शाह सब्जपोश अपनी किताब 'दीवाने फानी' में अपने खानदान सब्जपोश के बारे में लिखते हैं कि सुल्तान सिकंदर लोदी के जमाने में उनके पूर्वज सैयद अहमद मक्की नजफ अशरफ़ से हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए और अयोध्या में ठहर गए। सैयद अहमद मक्की के साहबजादे हज़रत मीर सैयद मूसा हज़रत सैयद असद्दुदीन आफताबे हिन्द जफ़राबादी के मुरीद व जलीलुलकद्र ख़लीफा थे। आपकी औलाद से चंद पुश्तों के बाद एक शाख परगना सगड़ी (जो पहले जौनपुर का हिस्सा था अब आजमगढ़ का हिस्सा है) में आकर रही। दो तीन पुश्तों के बाद हुए हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन गोरखपुर तशरीफ लाए। मुगल शहंशाह शाहजहां (1627-1658 ई.) के आख़िरी ज़माने में या उससे कुछ कब्ल। जहां आपने कयाम फरमाया (जाफ़रा बाज़ार) वह जंगल था। शहर उसके जानिबे शुमाल (उत्तर) था। जहां एक मोहल्ला पुराने गोरखपुर के नाम से बाकी है। मुगल शहंशाह औरंगजेब के ज़माने में शहजादा मुअज्जम शाह ने नया शहर बसाया। जिसका नाम मुअज्जमाबाद रखा। खैर।
हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन के वक्त मस्जिद और हुजरे के सिवा कोई इमारत न थीं। धीरे-धीरे सुकूनत और सहूलियत के लिए मजार और मस्जिद के गिर्दा गिर्द वसी हल्के व वसी पैमाने पर मुस्तहकम व शानदार इमारतें बनीं। वक्तन फवक्तन इज़ाफ़ा होता रहा। उस वक्त गोरखपुर के काजी अबुल बरकात निजामाबादी थे ।
मशाइख-ए-गोरखपुर के लेखक सूफी वहीदुल हसन लिखते हैं कि हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह अलैहिर्रहमा के जद्दे अमजद हज़रत मीर सैयद अहमद मक्की अलैहिर्रहमा सिकंदर लोदी के ओहदे में तशरीफ़ लाए और अयोध्या में ठहरे। आपकी औलाद से चंद ही पुश्तों के बाद एक शाख परगना सगड़ी जो उस ज़माने में जिला जौनपुर का एक परगना था आकर रही। उसी शाख में एक बुज़ुर्ग हुए जिनका नाम हज़रत मीर सैयद मारूफ अलैहिर्रहमां था। आप ही के साहबजादे कुतबुल आरफीन हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन थे। कुदरत का हमेशा से ये दस्तूर चला आ रहा है कि जब माबूदे बरहक किसी को नवाजना चाहता है तो वो उसे किसी कामिल बुज़ुर्ग के पास भेज देता है। चुनांचें ऐसा ही मौसूफ के साथ भी हुआ। हज़रत मीर सैयद कयामुद्दीन शाह को एक जज़्बा पहुंचा जो आपको खींचकर हज़रत शैख़ मोहम्मद रशीद जौनपुरी अलैहिर्रहमा के दरबारे आलिया में ले आया। आप मुरीद हुए। खूब रियाजतें की, मुतआद्दीद चिल्ले खींचें और सुलूक की मनाजिल तय कीं। पुराने वक्तों में दस्तूर था कि अच्छे मुरीद को इजाजत देकर किसी मकाम की विलायत भी सौंप दी जाती थी। आपके शैख़ ने ख़िलाफत अता फरमाई और गोरखपुर की विलायत बख़्शी। मुगल शहंशाह शाहज़हां (1627-1658 ई.) का जमाना था। आपने गोरखपुर में जिस जगह आज आपका मजार (सब्जपोश हाउस मस्जिद के प्रागंण में) है उसी जगह अपनी अशा-ए-मुबारक नसब किया और फरमाया फ़कीर का यही मकाम है। आज तक आपकी औलाद यहीं आबाद है। अशा और नालैन बतौर तबर्रुक अभी तक महफूज है गालिबन। गंजे अरशदी खानदाने रशीदी का एक कल्मी नुस्खा है जो तारीख़ भी है और मुस्तनद भी। उसके हिस्से की नक़ल नाजरीन के पेशे नज़र करता हूं क्योंकि और किसी जरिए से आपके हालात मालूम होना बहुत दुश्वार है। ये इक्तेबासात दीवाने फानी गोरखपुरी के दीबाचा में मिल गयी है। हजरत मीर कयामुद्दीन कुतबुल अकताब हज़रत शैख़ मोहम्मद रशीद से मुरीद हुए। बादे बैअत सख्तरीन रेयाजतें करके ख़िलाफत व इजाजत से सर्फेयाब हुए। हमेशा रोज़े रखने और इबादत (कायेमुल लैल) के अलावा आप बहुत बाकमाल थे। नमाज़ और अवराद (विर्द) में मश्गूलियत इस हद पहुंच चुकी थी कि बकद्रे जरुरत ही आदमियों से हम कलाम होते थे। निस्फ शब के बाद थोड़ा सा खाना तनावुल फरमाते। खुद फज्र के अव्वल वक्त हुजरे से बाहर आकर अज़ान पुकारते, नमाज़ में किरात इतनी तवील फरमाते कि अगर किसी को गुस्ल की हाजत होती तो बैतुलखला से फरागत हासिल करके बाद गुस्ल सुन्नते फज्र के फज्र की पहली रकात में शामिल हो जाता। शुगल में इनहेमाक और इस्तेगराक बेहद था। आपको देखने से खुदा याद आ जाता था। वतन कस्बा सगड़ी था वहां से गोरखपुर तशरीफ लाए और कयाम पजीद हुए। अकसर सआदतमंद आपके हलका-ए-इरादत में आए और बहुतों को हिदायत व ख़िलाफत बख़्शी। जिसको उन्होंने बहुस्ने व खूबी कायम व दायम रखा। बहुतेरों को नमाजे माकूस तालीम फरमाई। अपने पीरो मुर्शीद से आपको बेपनाह मुहब्बत थी और वो भी आप पर इंतेहाई शफीक व मेहरबान थे। नमाज़ के मुताल्लिक आपका वाकया बहुत मशहूर है कि एक दफा नमाज़ में मशगूल थे कि एक काला बिच्छू आपके खिरके मुबारक में चला आया। नमाज़ कताअ न फरमाई और जिस हुजूरी व दिलजमई से अदा फरमा रहे थे उसमें बाल बराबर फर्क न आया। बाद नमाज़ जब खिरका उतारा। लोगों ने काला बिच्छू को देखा और उसे निकाला। जब जईफ हुए तो जौफ इतना था कि बगैर चौबी तकियों के जो बैतुलखला तक नसब थे बैतुलखला न जा सकते मगर नमाज़ अदा फरमाते तो पहरभर कियाम फरमाते थे और तकलीफ व मशक्कत का कुछ असर महसूस न होता था। तारीख 13, माह शव्वाल 1077 को आपके पीरो मुर्शीद ने आपसे फरमाया कि मीर सैयद जाफ़र और तुम हर दो अजीज कल कयामत में इस फकीर की नजात का सबब होगे। एक बार हज़रत पीरो मुर्शीद के तशरीफ़ लाने पर मीर सैयद कयामुद्दीन चिल्ले से निकल कर कदमबोश हुए और आपने बाकमाले शफ्कत आगोश में ले लिया और चमचा दूध अपने हाथ से पिलाया। माह शव्वाल 1077 हिजरी की बींसवीं तारीख को हजरत पीर दस्तगीर ने मीर सैयद कयामुद्दीन को जिक्रे सलासी, गबंदी, कलंदरी की तालीम दी। जो कुछ फुकरा और औलिया में होता है वो सब आपमें था। तमाम वक्त यादे मौला में गुजरता था। आपका विसाल 8 सफर 11 28 हिजरी को हुआ, जबकि आपकी उम्र शरीफ सौ बरस से कहीं ज्यादा हो चुकी थीं। मदफन मुबारक शहर गोरखपुर सहन हुजरा में बामकामे सुकूनत है। जिस वक्त आप विसाल बहक हुए पांच या छह घड़ी रात बाकी थी। आपके मजारे अक्दस की खाक शिद्दते दर्द के लिए आज भी अक्सीर का हुक्म रखती है। मिसल मशहूर है कि शेर की औलाद शेर ही होती है, चुनांचें बुजुर्गी सिलसिला ब सिलसिला आपकी औलाद में खुलफा के अलावा भी मुंतकिल होती रही। आपकी तवज्जो खास और फजले खुदावंदी से हजरत शाह मीर मोहम्मद सालेह, हजरत शाह मीर अहमदुल्लाह, हजरत शाह मीर गुलाम गौस, हजरत शाह मीर मेंहदी, हजरत शाह मीर गुलाम रसूल जैसे जय्यद उलेमा, फुकरा और साहिबे बातिन हजरात ने इसी शहर और उसके बाहर मारफत के दरिया बहाए और सैकड़ो हज़ारों अफराद की इस्लाहे बातिन में अपनी कुव्वतों को सर्फ किया। सभी हकीकत से आगाह तवज्जे में यदे तौला रखते थे। 'साहिबे बहरे जख्खार' ने भी सब्जपोश हाउस के बुजुर्गों का तज्किरा अपनी सहरे आफाक किताब में किया है।

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